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मार्ग : एकादश अध्ययनं
एक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं-जैसे ग्वाला ताजे जन्मे हुए गाय के बच्चे को हाथों से उठाकर गाय के पास ले जाता है और फिर ले आता है । इसी तरह यदि वह प्रतिदिन उस बछड़े को अपने हाथों से उठाकर गाय के पास ले जाने और वापस लाने का अभ्यास जारी रखें तो बछड़ा दो-तीन वर्ष का हो जाय तो भी वह उस बछड़े को उसी तरह हाथों से उठा सकता है और वापस ला सकता है । इसी प्रकार साधु भी क्रमशः परीषहों और उपसर्गों को जीतने का अभ्यास करता रहे तो उन्हें जीतने या सहने का दुष्कर कार्य भी आसानी से सुकर हो सकता है ।
मूल पाठ संडे से महापन्ने, धीरे दत्त सणं चरे
निव्वुडे कालमाकंखी, एयं केवलिणो मयं ॥ २८ ॥
त्ति बेमि ॥
संस्कृत छाया
संवृतः स महाप्राज्ञः, धीरो दत्त षणां चरेत् । निर्वृतः कालमाकांक्षेदेवं केवलिनो मतम्
अन्वयार्थ
(संबुडे महापन्ने धीरे से ) आस्रवद्वारों का निरोध किया हुआ, महाबुद्धिशाली धीर वह साधु (दत्त सणं चरे) दूसरे (गृहस्थ ) के द्वारा दिया हुआ एषणीय आहार ही ग्रहण एवं सेवन करे । ( निव्वुडे कालमाकंखी) तथा शान्त ( उपशान्तकषाय ) रहकर अपने पण्डितमरण या समाधिमरण (काल) की ( अगर काल का अवसर आए तो) आकांक्षा करे । (एयं केवलिणो मयं ) यही केवली भगवान् का मत है । भावार्थ
||३८|| इति ब्रवीमि ।।
आस्रवद्वारों का जिसने निरोध कर दिया है, ऐसा महाबुद्धिमान धीर साधक गृहस्थ आदि दूसरे के द्वारा दिया हुआ एषणीय आहारादि हो ग्रहण करे एवं शान्त रहकर समाधिपूर्वक मृत्यु की ( अगर मृत्यु का अवसर आए तो ) आकांक्षा करे, यही केवली भगवान का मत है ।
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व्याख्या
संवृत और शान्त साधक की अन्तिम समय की साधना
इस गाथा में शास्त्रकार ने साधु के अन्तिम समय की साधना के बारे में सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवान् का मत दिया है। इसी गाथा के द्वारा इस अध्ययन का उपसंहार भी किया हैं । सचमुच कभी-कभी ऐसा होता है कि जीवन भर साधक जिस मार्ग पर चला है, जो साधना की है, अन्तिम समय में वह उसमें फेल हो जाता है ।
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