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________________ समाधि : दशम अध्ययन ८०५ की वस्तुओं के ज्ञान मात्र से कोई सुखी नहीं होता ।' इस प्रकार क्रियावादी क्रिया को ही फलदायी मानकर एकान्त क्रियावाद का आश्रय लेते हैं। इसके विपरीत अक्रियावादी अपना ही राग अलापते हैं। इसका स्वरूप आगे चलकर बताया जाएगा। कहने का आशय यह है कि इस संसार में नाना प्रकार की रुचि वाले मनुष्य हैं । कोई एकान्त क्रियावाद का आश्रय लेकर मोक्ष की प्ररूपणा करते हैं और कोई अक्रियावाद को लेकर, परन्तु दोनों ही एकान्तवादी हैं, मोक्ष का स्वरूप दोनों ही सम्यक्रूप से नहीं जानते । कई तो आरम्भ में आसक्त और इन्द्रियों के गुलाम बनकर सुख-शान्ति एवं सम्मान-प्रतिष्ठा की लालसा से सुख की इच्छा से युक्त, हिताहित विवेकविकल, तुरन्त जन्मे हुए बालक के शरीर को काटकर टुकड़े-टुकड़े करके आनन्द मनाते हैं । इस प्रकार दूसरों को पीड़ा देने वाली क्रिया करने वाला तथा किसी भी पाप से अनिवृत्त असंयती जीव उन प्राणियों के साथ सैकड़ों जन्मों तक चलने वाले पारस्परिक वैर को बढ़ाता है । यहाँ 'जायस्स बालस्स पकुव्व देह के बदले 'जायाए बालस्स पगब्भणाए' पाठ भी मिलता है, जिसका अर्थ है-दयारहित तथा हिंसादि कार्यों में प्रवृत्त अज्ञानी जीव की जो हिंसावाद में धृष्टता है, उससे प्राणियों के साथ उसका वैर ही बढ़ता है। मूल पाठ आउक्खयं चेव अबुज्झमाणे, ममाति से साहसकारि मंदे । अहो य राओ परितप्पमाणे, अठेस मुढे अजरामरेव्व ।।१८।। संस्कृत छाया आयुःक्षयं चैवावुध्यमानः ममेति स साहसकारी मन्दः । अहनि च रात्रौ परितप्यमानः अर्थेषु मूढोऽजरामर इव ॥१८॥ अन्वयार्थ (आउक्खयं चेव अबुज्झमाणे) आरम्भ में आसक्त पुरुष आयुष्य क्षय होना नहीं जानता, (ममाति से साहसकारि मंदे) किन्तु वह मूर्ख वस्तुओं पर ममता करता हुआ पापकर्म करने का साहस करता है । (अहो य राओ परितप्पमाणो) वह रातदिन चिन्ता में संतप्त रहता है, (अजरामरेव्व अढेसु मूढे) वह मूढ़ अपने को अजरअमर की तरह मानता हुआ धन में आसक्त रहता है । भावार्थ आरम्भ में आसक्त अज्ञानी जीव यह नहीं समझता कि एक दिन यह आयुष्य समाप्त हो जाएगी, बल्कि वह विवेकमूढ़ वस्तुओं पर ममत्व करता १. क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात् सुखितो भवेत् ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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