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सूत्रकृताग सूत्र
मार्ग का आश्रय लेकर अक्रियावाद - सिद्धान्त में भी आत्मा के बन्ध और मोक्ष का अस्तित्व बताते हैं | परन्तु वे अज्ञजीव बन्धमोक्ष का स्वरूप जानते तो बन्ध के कारणभूत आरम्भ एवं विषयों में आसक्त क्यों होते ? वे अहिंसाधर्म को मोक्ष का कारण मानते तो हिंसाजनक आरम्भों -- विविध आरम्भों में क्यों प्रवृत्त होते हैं ? परन्तु देखा जाता है कि सांख्यमतवादी बन्धन- मोक्ष के विषय में केवल गाल बजाते हैं, बन्ध के कारणों से दूर होकर मोक्ष के कारणों में प्रवृत्ति नहीं करते। क्योंकि वे रसोई पकाने - पकवाने आदि की क्रिया में प्रवृत्त होते हैं, हरी वनस्पति का छेदन-भेदन करते हैं, कच्चे (सचित्त) पानी का उपयोग पीने, रसोई बनाने व स्नान आदि में करते हैं । इस प्रकार सावद्य कार्यों में प्रवृत्त सांख्यवादी श्रुत चारित्ररूप धर्म मोक्षमार्ग को नहीं जानते ।
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मूल पाठ
पुढो य छंदा इह माणवा उ, किरियाकिरियं च पुढो य वायं । जायस्स बालस्स पकुव्व देहं पवड्ढई वेरमसंजयस्स
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संस्कृत छाया
पृथक् छन्दा इह मानवास्तु क्रियाऽक्रियं पृथक्वादम् । जातस्य बालस्य प्रकृत्य देहं, प्रवर्धते वैरमसंयतस्य
अन्वयार्थ
( इह माणवा उ पुढो छंदा ) इस संसार में मनुष्यों की रुचियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं, ( किरिया किरियं च पुढो य वायं) इसलिए कोई क्रियावाद को मानते हैं और कोई उससे भिन्न अक्रियावाद को । ( जातस्स बालस्स पकुव्व देहं ) वे जन्मे हुए ( सद्यः जात) बालक के शरीर को काटकर अपना सुख पैदा करते हैं, (असंजयस्स वेरं पढाई ) वस्तुत: ऐसे असंयमी व्यक्ति का वैर ( प्राणियों के साथ) बढ़ता जाता है । भावार्थ
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जगत् में मनुष्यों की रुचियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं । इस कारण कोई क्रियावाद को मानता है तो कोई उससे विपरीत अक्रियावाद को । तथा कोई ताजे जन्मे हुए बच्चे के शरीर को काटकर अपना सुख मानते हैं, वस्तुत: ऐसे असंयमी लोग दूसरों के साथ वैर ही बढ़ाते हैं ।
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व्याख्या
अज्ञानमूलक मतों के एकान्त आश्रय से समाधि नहीं
इस विश्व में भिन्न-भिन्न रुचियों के मनुष्य हैं । इसी कारण कोई एकान्त क्रियावाद को मानते हैं और कोई एकान्त अक्रियावाद को । क्रियावादी कहते हैं कि पुरुषों को क्रिया ही फल देती है, ज्ञान नहीं; क्योंकि स्त्री, भोज्यपदार्थ एवं भोगों
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