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________________ सूत्रकृताग सूत्र मार्ग का आश्रय लेकर अक्रियावाद - सिद्धान्त में भी आत्मा के बन्ध और मोक्ष का अस्तित्व बताते हैं | परन्तु वे अज्ञजीव बन्धमोक्ष का स्वरूप जानते तो बन्ध के कारणभूत आरम्भ एवं विषयों में आसक्त क्यों होते ? वे अहिंसाधर्म को मोक्ष का कारण मानते तो हिंसाजनक आरम्भों -- विविध आरम्भों में क्यों प्रवृत्त होते हैं ? परन्तु देखा जाता है कि सांख्यमतवादी बन्धन- मोक्ष के विषय में केवल गाल बजाते हैं, बन्ध के कारणों से दूर होकर मोक्ष के कारणों में प्रवृत्ति नहीं करते। क्योंकि वे रसोई पकाने - पकवाने आदि की क्रिया में प्रवृत्त होते हैं, हरी वनस्पति का छेदन-भेदन करते हैं, कच्चे (सचित्त) पानी का उपयोग पीने, रसोई बनाने व स्नान आदि में करते हैं । इस प्रकार सावद्य कार्यों में प्रवृत्त सांख्यवादी श्रुत चारित्ररूप धर्म मोक्षमार्ग को नहीं जानते । ८०४ मूल पाठ पुढो य छंदा इह माणवा उ, किरियाकिरियं च पुढो य वायं । जायस्स बालस्स पकुव्व देहं पवड्ढई वेरमसंजयस्स , 112011 संस्कृत छाया पृथक् छन्दा इह मानवास्तु क्रियाऽक्रियं पृथक्वादम् । जातस्य बालस्य प्रकृत्य देहं, प्रवर्धते वैरमसंयतस्य अन्वयार्थ ( इह माणवा उ पुढो छंदा ) इस संसार में मनुष्यों की रुचियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं, ( किरिया किरियं च पुढो य वायं) इसलिए कोई क्रियावाद को मानते हैं और कोई उससे भिन्न अक्रियावाद को । ( जातस्स बालस्स पकुव्व देहं ) वे जन्मे हुए ( सद्यः जात) बालक के शरीर को काटकर अपना सुख पैदा करते हैं, (असंजयस्स वेरं पढाई ) वस्तुत: ऐसे असंयमी व्यक्ति का वैर ( प्राणियों के साथ) बढ़ता जाता है । भावार्थ 1 जगत् में मनुष्यों की रुचियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं । इस कारण कोई क्रियावाद को मानता है तो कोई उससे विपरीत अक्रियावाद को । तथा कोई ताजे जन्मे हुए बच्चे के शरीर को काटकर अपना सुख मानते हैं, वस्तुत: ऐसे असंयमी लोग दूसरों के साथ वैर ही बढ़ाते हैं । 118011 व्याख्या अज्ञानमूलक मतों के एकान्त आश्रय से समाधि नहीं इस विश्व में भिन्न-भिन्न रुचियों के मनुष्य हैं । इसी कारण कोई एकान्त क्रियावाद को मानते हैं और कोई एकान्त अक्रियावाद को । क्रियावादी कहते हैं कि पुरुषों को क्रिया ही फल देती है, ज्ञान नहीं; क्योंकि स्त्री, भोज्यपदार्थ एवं भोगों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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