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समाधि : दशम अध्ययन
८०१ आदि का स्पर्श तथा शीत-उष्ण स्पर्श, और दंश-मशक के स्पर्श को सहन करे, तथा सुगन्ध और दुर्गन्ध को भी समभाव से सहे।
व्याख्या
विषयों में अनासक्त साधु भावसमाधि कसे पाए ? इस गाथा में यह बताया गया है कि विषयों में अनासक्त साधु को भावसमाधि कैसे प्राप्त हो सकती है ? जो साधु पंचेन्द्रियविषयों से अनासक्त हो जाता है, तब वह यह समझने लगता है कि मैं इन्द्रियविजेता हो गया, किन्तु परमार्थदर्शी एवं मन की हलचलों का भली-भाँति ज्ञाता न होने के कारण वह जरा से परीपहों के झोंके आते ही संयम से डगमगाने लगता है, मन पुनः इन्द्रियविषयों की ओर दौड़ने को ललचाता है । इस प्रकार उस साधक की संयम में निष्ठा शिथिल हो जाती है, संयम के प्रति उसकी अरुचि हो जाती है और असंयम की ओर उसकी रुचि ढलने लगती है, उसकी भाव-समाधि अपना स्थान छोड़कर भागने लगती है। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं --- 'अरई रइं च अभिभूय .. · वा तितिक्खएज्जा। विषयों में अनासक्त साधु को भावसमाधि प्राप्त करने के लिए संयम जो अरुचि हो रही है, उसे हटा देना चाहिए और असंयम की ओर झुकाव को भी मोड़ देना चाहिए। यानी उसे अपने मन को ऐसे साध लेना चाहिए कि जो भी परीषह आएँ, उन्हें निर्जरा का कारण जानकर समभावपूर्वक सहे। यह सोचे कि मेरे लिए सहज ही कर्मक्षय करने का अवसर आ गया है। ऐसा सोच कर न सर्दी से घबराए और न गर्मी से, न घास आदि के स्पर्श से मन में अरुचि हो और न ही दंश-मशक आदि के तीखे स्पर्श से बेचैनी हो । नाक में सुगन्ध आए या दुर्गन्ध, आँखों के सामने सुरूप आये या कुरूप, कानों से कर्णप्रिय शब्द टकराएँ या कर्णकटु; दोनों स्थितियों में समभाव से रहे, न राग करे, न द्वाप । अगर एक पर राग किया तो दूसरे पर द्वष (घृणा या अरुचि) अवश्य होगा। इसी प्रकार जो भी परीषह आएँ उन पर समभाव से, राग षरहित होकर सोचे । तभी भाव-समाधि का सच्चा आनन्द साधु को प्राप्त होगा।
मूल पाठ गुत्तो वईए य समाहिपत्तो, लेसं समाहटु परिव्वएज्जा । गिहं न छाए, न वि छायएज्जा, संमिस्सभावं पयहे पयासु ॥१५॥
संस्कृत छाया गुप्तो वाचा च समाधि प्राप्तो, लेश्यां समाहृत्य परिव्रजेत् । गृहं न छदेन्नाऽपि छादयेत्, संमिश्रभावं प्रजह्यात प्रजासु ।।१५।।
अन्वयार्थ (बईए य गुत्तो) जो साधु वचन से गुप्त रहता है, समझ लो (समाहिपत्तो)
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