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सूत्रकृतांग सूत्र
व्याख्या
निःसन्देह वह साधु समाधिप्राप्त है।
इस गाथा में शास्त्रकार ने मैथुन और परिग्रह से निवृत्त साधक को समाधिप्राप्त बताया है। चाहे जैसा भी एकान्त स्थान हो, चाहे मनोहर ललनाएँ उससे सहवास की प्रार्थना कर रही हों, वह एकाकी हो, कोई तीसरा देखता न हो, फिर भी ब्रह्मचर्यनिष्ठ साधक किसी देवी, मानुषी या तिर्यञ्च नारी के साथ न तो सहवास करेगा, न ही उसके साथ कामचेष्टा करेगा, और न ही स्त्रियों के कटाक्ष, हावभाव, रमणीय अंग, नेत्र आदि से मोहित होकर मन में विकारभाव लाएगा, वह उसे माता-बहन मानकर अधोमुखी दृष्टि करके आगे चल देगा। इसी प्रकार जो साधक धन-धान्य, द्विपद-चतुष्पद आदि सजीव-निर्जीव किसी वस्तु पर अपना ममत्व स्थापित नहीं करता, न ही इन वास्तुओं की मन में इच्छा करता है, बल्कि धर्मोपकरणों के प्रति भी ममता-
मूर्छा नहीं रखता । तथा उत्कृष्ट विषयों पर जिसका राग और निकृष्ट विषयों पर द्वेष नहीं है, तथा जो विशिष्ट उपदेश देकर प्राणियों की रक्षा करता है, वह मूल-उत्तर-गुणों से युक्त साधु वास्तव में भाव-समाधि को प्राप्त है। अथवा निस्संसयं का अर्थ 'निःसंश्रय' भी हो सकता है, अर्थात् --- नाना प्रकार के विषयों का जो संश्रय---- सेवन नहीं करता है, वही साधु भाव-समाधि को प्राप्त है।
मूल पाठ अरइं रईच अभिभूय भिक्ख, तणाइफासं तह सीयफासं । उण्हं च दंसं चाहियासएज्जा, सुब्भि व दुभि व तितिक्खएज्जा ।।१४।।
संस्कृत छाया अरति रति चाभिभूय भिक्षुस्तृणादिस्पर्श तथा शीतस्पर्शम् । उष्णञ्च दंशं चाधिसहेत, सुरभिं च दुरभि च तितिक्षयेत् ॥१४।।
अन्वयार्थ (भिक्खू) साधु (अरई रइंच अभिभूय) संयम में अरति अर्थात् खेद तथा असंयम में रति यानी राग को जीतकर (तणाइफासं तह सोयफासं उण्हं च दंसं चाहियासएज्जा) तण आदि का स्पर्श, शीतस्पर्श, उष्णस्पर्श एवं दंश-मशक के स्पर्श को सहन करे, (सुभि व दुभि व तितिक्खएज्जा) तथा सुगन्ध और दुर्गन्ध को भी सहन करे।
भावार्थ साधु संयम में खेद एवं असंयम में प्रीति को जीतकर तथा तृण
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