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________________ समाधि : दशम अध्ययन ७६३ मूल पाठ सव्वं जगं तू समयाणुपेही, पियमप्पियं कस्सइ णो करेजा। उठाय दीणो य पुणो विसन्नो, संपूयणं चेव सिलोयकामी ॥७॥ संस्कृत छाया सर्वं जगत्त समतानुप्रेक्षी, प्रियमप्रियं कस्यचिन्न कुर्यात् उत्थाय दीनश्च पुनविषण्णः, सम्पूजनं चैव श्लोककामी ॥७।। अन्वयार्थ (सव्वं जगं तू समयाणपेही) साधु सारे जगत को समभाव से देखे । (कस्सइ पियमप्पियं णो करेज्जा) किसी का प्रिय अथवा अप्रिय न करे। (उठाय दीणो य पुणो विसनो) कोई साधक प्रव्रज्या लेकर परीषहों और उपसर्गों से पीड़ित होने पर दीन होकर, फिर दुःखी या पतित हो जाते हैं, (संपूयणं चेव सिलोयकामी) और कोई-कोई अपनी पूजा-प्रतिष्ठा और प्रशंसा के अभिलाषी बन जाते हैं। भावार्थ साधु समस्त जगत् को समभाव से देखे। वह किसी का प्रिय या अप्रिय न करे। कोई-कोई साध प्रव्रज्या धारण करके परीषहों और उपसर्गों की मार आने पर दीन-हीन-दुखी हो जाते हैं, और प्रव्रज्या को छोडकर पुन: पतित हो जाते हैं, या पुनः ग्रार्हस्थ्य के विषाद में मग्न हो जाते हैं । कोई-कोई मुनि दीक्षा लेकर अपनी पूजा प्रतिष्ठा और प्रशंसा का इच्छूक हो जाता है। व्याख्या समत्व ही समाधि का उत्तम मार्ग इस गाथा में शास्त्रकार ने प्राणिकृत एवं परिस्थितिकृत समत्व को समाधि का उत्तम मार्ग सूचित किया है। प्राणिकृत समत्व इस प्रकार है - साधु संसार के सभी प्राणियों पर समत्वदृष्टि रखे । छहों काया के जीवों को आत्मवत् देखे। किसी प्राणी को अपना प्रिय और किसी को अप्रिय न समझे । जब साधु इस प्रकार सर्वभूतात्मभूत हो जाएगा, तब न तो किसी पर रोष करेगा, और न तोष । जैसे कि कहा है नत्थिय य स कोइ दिस्सो पिओ व सव्वेसु चेव जीवेस ।। अर्थात्--समस्त जीवों में साधु का न तो कोई द्वेष का पात्र है और न कोई प्रेम-भाजन । ऐसे समभावी साधु का यह चिन्तन होता है कि जैसे मुझे दुःख अप्रिय है, वैसे ही दूसरों को भी दुःख अप्रिय है । इसलिए समत्व से युक्त साधु किसी का भी प्रिय या अप्रिय न करे, किन्तु ऐसे मामलों में निःसंग एवं निर्लेप होकर रहे। इस प्रकार प्राणिकृत-समत्व से युक्त साधु ही सम्पूर्ण भावसमाधि से सम्पन्न होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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