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सूत्रकृतांग सूत्र
दूसरे वे कोई धर्म-पालन या ज्ञान-दर्शन-चारित्र का आचरण नहीं करते; वल्कि हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन आदि पापों में रत रहते हैं । तीसरे, जब वे रोटी के टुकड़ों के लिए दर-दर भटकते हैं तब लोग उन्हें किसी समय बासी, ठंडा, रूखा-सूखा भोजन दे देते हैं, या बढ़िया भोजन नहीं देते हैं तो वे रुष्ट होकर उन्हें भला-बुरा कहने को उतारू हो जाते हैं। नहीं देते हैं तो नाराज होकर लड़ने-मरने को तैयार हो जाते हैं, किन्तु सन्तुष्ट होकर नहीं बैठते ।
राजगहनगर में एक बार उत्सव था। बहुत से नागरिक उत्सव के निमित्त नगर के बाहर गये। वहाँ उन्होंने भोजन बनाकर खाया-पीया। वहाँ एक भिखारी देर से पहुँचा, जबकि भोजन समाप्त हो चुका था। भिखारी को भोजन न मिलने से वह रुष्ट होकर वैभारगिरि पर चढ़ गया, वहाँ से वह उन लोगों पर पर्वतशिला गिराना चाहता था, लेकिन अचानक उसका पैर फिसल गया और वह उस आर्त्त रौद्रध्यान के फलस्वरूप मरकर नरक का मेहमान बन गया। अतः जो साधु भिखारी की तरह दीनतापूर्वक भिक्षा करता है, उसे समाधियुक्त न समझो, वह तो पाप से लिप्त होता है. और उसे जो थोड़ी-सी समाधि स्पर्शादि इन्द्रियविषयपोषक तुष्टि के कारण प्राप्त भी हो जाती है, तो वह भी द्रव्य समाधि है, असली भावसमाधि नहीं है। कहीं लोग भ्रान्तिवश इस नकली द्रव्यसमाधि को ही असली भावसमाधि न समझें, यह विचारकर तीर्थंकर और गणधर ने संसार-सागर से पार करने वाली भावरूप ज्ञानादि समाधि का उपदेश दिया था। वह ज्ञानादि समाधि 'सर्वमतदशं सुखम्' इस उक्ति के अनुसार इन्द्रियों या परवस्तुओं के अधीन नहीं है। वह त्याग-7पस्याजन्य तथा अपने अधीन है, उसे निर्धन, अकिंचन, बुद्धिमन्द आदि हर व्यक्ति प्राप्त कर सकता है, इसलिए वह समाधि एकान्तिक और आत्यन्तिक सुख को उत्पन्न करती है। जबकि द्रव्यसमाधि स्पर्शादिसुख को उत्पन्न करती है, वह मुख भी अनिश्चित और अल्पकालीन तथा क्षणिक होता है। बल्कि वैषयिक सुख भोगते समय भले ही थोड़ी देर के लिए मन को खुशी से भर दें किन्तु बाद में वे व्याधि, मरण या अन्य ऐसे ही दुर्गतिजनित या इहलोक के किसी चिन्ताजनक दुःख को उत्पन्न करते हैं।
इस लिए तत्त्वदर्शी स्थितप्रज्ञ विवेकी साधु ज्ञानादि चार प्रकार की भावसमाधि में मग्न रहे । कहीं-कहीं 'ठियप्पा' के स्थान पर 'ठियच्चि' पाठ है, उसका अर्थ हैfलेश्यावान् साधु । 'रए विवेगे' का अर्थ यह भी हो सकता है-आहार, उपकरण और कषाय का विवेक त्याग करके साधु द्रव्य और भाव से आनन्द माने । किन्तु प्राहियों के दस प्राणों के विनाश से सर्वथा दूर रहे। यही एकान्त भावसमाधि वा मार्ग है।
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