SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 835
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७६० सूत्रकृतांग सूत्र आदि नीच योनियों में परिभ्रमण करता रहता है । प्राणी जीवों की हिंसा करके पापकर्म करता है, तथा दूसरों को हिंसा करने में लगाकर भी पापकर्म का उपर्जन करता है। व्याख्या प्राणिहिंसा करने-कराने से समाधि का नाश प्राणिहिंसा करने-कराने से उपाजित पापकर्मों के फलस्वरूप जीव को नाना तुच्छ योनियों में बार-बार परिभ्रमण करना पड़ता है, जहाँ उसे सम्यकबोध नहीं मिल पाता। फलतः उस प्राणी को समाधि तो मिलती ही कैसे ? अज्ञानी जीव जिस समय इन प्राणियों को कष्ट देता है, काटता, तपाता, आग में जलाता है, उस समय वह चाहे अपने जरा-से स्वार्थ या वैषयिक सूख के लिए ऐसा करता हो, परन्तु उसे उस पापकर्म की बहुत मँहगी कीमत चुकानी पड़ती है। जो इस प्रकार दूसरों को पीड़ा देकर उनकी समाधि भंग करता है, उसकी चिरकाल तक अपनी ही समाधि भंग होती है। वह अज्ञानी जीव अपने चिरसंचित पापकर्म के कारण उन्हीं पाप. योनियों अथवा पापकर्मों के स्थानों में बार-बार जन्म-मरण करता है। कहीं-कहीं 'एतेसु बाले' के बदले ‘एवं तु बाले' पाठ मिलता है। उसका अर्थ है.---जैसे चोर और परस्त्रीलम्पट पुरुष बुरे कार्य करके इस लोक में वध, बन्धन, अंगदान आदि दुःख पाते हैं, (एवं तु) वैसे ही दूसरे पापी भी इस लोक और परोत में दु:ख के भाजन बनते हैं। कहीं-कहीं 'आवट्टती के बदले 'आउट्टति' पाठ मिलता है। उसका अर्थ यह है कि बुद्धिमान पुरुष अशुभ कर्मों का दुःखरूप फल देख-सुन कर या जानकर उक्त पापकर्मों से विरत हो जाते हैं। अज्ञानी जीव पापकों का संचय कैसे करता है ? इसके लिए शास्त्रकार कहते हैं--- 'अतिवायतो कीरति पावकम्म..करेइ कम्मं ।' ___ अर्थात् - जीवहिंसा सबसे बड़ा पापकर्म है। जीवहिंसा करके जीव बहुत पाप कर्मों का बंध करता है, यही नहीं, दूसरों को जीवहिंसा में लगाकर भी जीव पापकर्म का उपार्जन करता है। यहाँ मूल में 'उ' तु) शब्द है, वह घोतित करता है कि जो हिंगा की तरह झूठ बोलता है, चोरी करता है, मैथुन-सेवन करता है, परिग्रहवृत्ति रखता है, अथवा दूसरों से इन आस्रवों को कराता है, वह पाप का संचय करता है। पापकर्म मनुष्य को समाधिपूर्वक नहीं बैठने देता, वह उसे नाना दु:खों एवं दुःखरू । योनियों में भटकाता है । मूल पाठ आदीणवित्तीवि करेइ पावं, मंता उ एगंतसमाहिमाहु । बुद्धे समाहीय रए विवेगे, पाणाइवाया विरए ठियप्पा ।।६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy