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समाधि : दशम अध्ययन
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साधक को सर्वेन्द्रियों को रोकने के लिए सर्वप्रथम स्त्री- सम्पर्क से दूर रहना अनिवार्य है । साथ ही साधु को बाह्य और आभ्यन्तर संग ( आसक्ति ) से विशेष रूप से मुक्त निष्कञ्चन सर्वबन्धनमुक्त एवं निःस्पृह होना चाहिए । द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव का प्रतिबन्ध भी साधु को अशान्ति और चिन्ता में डाल देता है। उससे भी साधु को सर्वथा मुक्त होना चाहिए ।
कई बार साधु इन दोनों गुणों ( जितेन्द्रियता एवं सर्ववन्धनमुक्तता ) से सम्पन्न होने पर भी अकेला, अलग-थलग हो जाता है, अथवा होने को उतारू हो जाता है, और तब सहायक या साथी के बिना अकेला दुःखों और संकटों से जूझ नहीं पाता, उस मौके पर साधु असमाधिभाव में गर्क हो जाता है । शास्त्रकार कहते हैं कि ऐसे मौके पर त्रस और स्थावर प्राणियों को अलग-अलग आंखें खोलकर देखो, वे दुःखों और संकटों से छटपटा रहे हैं । साधो ! तुम्हारा दुःख और संकट तो उन दुःखों के मुकाबले में कुछ भी नहीं है । वे आर्तध्यान करके और नवीन कर्मों को बाँध रहे हैं । तुम अपने पर आये हुए दुःख और संकट को मामूली समझकर समभाव से सहन करो, इससे पुराने कर्म नष्ट होंगे, नये नहीं बँधेंगे और तुम्हारा चित्त समाधिभाव में लीन हो जायगा । समाधिभाव प्राप्त करने का यही नुस्खा है कि अपने दुःख को बिलकुल हलका और मामूली मानो, और उसे समभाव से सहो ।
मूल पाठ एतेसु बाले य पकुव्वमाणे आवट्टती कम्मसु पावएसु । अतिवायतो कीरति पावकम्मं, निउजमाणे उकरेइ कम्मं ॥५॥ संस्कृत छाया
एतेषु बालश्च प्रकुर्वाणः, आवर्तते कर्मसु पापकेषु 1 अतिपाततः क्रियते पापकर्म, नियोजयंस्तु करोति कर्म ||५||
अन्वयार्थ
( बाले) अज्ञानी जीव ( ऐतेसु) पूर्वोक्त पृथ्वीकाय आदि प्राणियों को ( पकुव्वमाणे) दुःखित-पीड़ित करता हुआ ( पावएसु कम्मसु आवती) पापकर्मों की ही बार-बार आवृत्ति करता रहता है । अथवा पापकर्मों के फलस्वरूप प्राप्त पृथ्वी काय आदि नीच योनियों में परिभ्रमण करता है । ( अतिवायतो पावकम्मं कीरति ) जीवों की हिंसा करके प्राणी पापकर्म करता है, (निउंजमाणे उ कम्मं करेइ) तथा दूसरों को हिंसा में प्रेरित करके भी पापकर्म का सम्पादन करता है ।
भावार्थ
अज्ञानी जीव पृथ्वीकाय आदि जीवों को पीड़ा देता हुआ पापकर्मों को बार-बार दुहराता रहता है, अथवा पापकर्मों के फलस्वरूप प्राप्त पृथ्वोकाय
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