________________
समाधि : दशम अध्ययन
आय--वृद्धि न करे, और न ही भविष्य के लिए धन्य-धान्य आदि किसी वस्तु का संचय करे।
व्याख्या
श्रुत-समाधि, दर्शन-समाधि और आचार-समाधि के उपाय इस गाथा में शास्त्रकार श्रुत, दर्शन और आचार समाधि के उपाय बताते हैं। श्रुतसमाधि का उपाय यह है कि वह शास्त्रों के रहस्यों का इतना अच्छा ज्ञाता हो जाए कि दूसरों को श्रु तधर्म और चारित्रधर्म को अच्छी तरह समझा सके । अर्थात् श्रु त-चारित्रधर्म की प्रांजल व्याख्या कर सकता हो, वह साधु श्रुतसमाधि प्राप्त कर लेता है । साथ ही वितिगिच्छतिणे' शब्द यहाँ दर्शनसमाधि को सूचित करता है। यानी वह साधु वीतरागप्ररूपित सिद्धान्तों या धर्मों के प्रति विचिकित्सा शंका को पार कर गया हो, शंका से रहित हो । जहाँ किसी सिद्धान्त या बात में चित्त में शंका होती है, वहाँ समाधि भंग हो जाती है। इसलिए निःशंकता दर्शनसमाधि के लिए अनिवार्य है । 'तमेव सच्चं निस्संक जं जिणेहि पवेइयं' जिनेन्द्र भगवन्तों ने जो कुछ कहा है, वही सत्य है, निःशंक है, इस प्रकार की दृढ़ श्रद्धा -- नि:शंकता होनी चाहिए, तभी दर्शनसमाधि प्राप्त हो सकती है। आगे आचारसमाधि के लिए कहा है-साधु को जो भी, जैसा भी अपनी विधि के अनुसार प्रासुक, एपणीय, कल्पनीय आहार-पानी या धर्मोपकरण मिल गया, वह अच्छा हो या खराव हो, मनोज्ञ हो या अमनोज्ञ हो, धर्मपालन के लिए उसे सहायक समझकर उसी में संतुष्ट होकर रहने वाला (लाढ) साधु आचारसमाधि प्राप्त करता है। तथा संसार के समस्त जीवों को आत्मवत् समझे, उनके साथ आत्मतुल्य व्यवहार करे, वही समसुखदुःखी, सममना साधु समाधि प्राप्त करता है । कहा भी है ---
जह मम ण पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सव्व जीवाणं ।
ण हणइ ण हणावेइ य, सममणई तेण सो समणो ।
जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं है, वैसे ही सभी जीवों को नहीं है, यह जानकर जो न किसी प्राणी का स्वयं हनन करता है और न हनन करवाता है, किन्तु सब के प्रति समान मन रखता है, इसी कारण वह समभावी साधु श्रमण कहलाता है। वह सोचता है कि जैसे मुझे कोई डाँटता-फटकारता है, या कलंक लगाता है, तो मुझे दु:ख होता है, वैसे ही अगर मैं दूसरों को डांटूंगा-फटकारूगा या कलंक लगाऊँगा तो उन्हें दुःख होगा । इस आत्मौपम्य सिद्धान्त के अनुसार वह सब प्राणियों को अपने समान मानता है। इसी तरह आचारसमाधि के लिए यह भी उचित है कि साधु किसी प्रकार की धन-धान्य, द्विपद-चतुष्पद आदि की आय (आमदनी) न करे और न ही इनका संचय करे। उसे भिक्षा पर निर्वाह करना है, यथालाभ संतुष्ट रहना है, तब पदार्थों के आय या संचय से लोई वास्ता नहीं रखना चाहिए । आहार-पानी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org