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सूत्रकृतांग सूत्र
के समय तथा मन-वचन और शरीर की क्रिया के समय संयत बनकर भावसमाधि प्राप्त करनी चाहिए। साथ ही भावसमाधि प्राप्त करने के लिए अदत्तादान का निषेध किया गया है। अदत्तादान के निषेध से परिग्रह का निरोध तो स्वतः हो जाता है। परिग्रह (ममत्व) किये बिना किसी वस्तु का सेवन नहीं किया जा सकता है, इसलिए परिग्रह-निषेध से मैथुन-निषेध भी अर्थतः किया हुआ समझना चाहिए। समस्त महाव्रतों के पालन से भावसमाधि मिलती है, इस प्रेरणा से असत्यभाषण का निषेध भी स्वत: सिद्ध हो जाता है। अथवा असत्य, परिग्रह एवं मैथुन से अन्य (बसस्थावर) जीवों की विराधना होती है, उन्हें पीड़ा होती है, इसलिए प्राणातिपात के निषेध के साथ इन तीनों का निषेध भी सिद्ध हो गया । निष्कर्ष यह है कि भाव-समाधि के लिए पाँचों आस्रवों का त्याग अनिवार्य है।
मल पाठ सुयक्खायधम्मे वितिगिच्छतिण्णे, लाढ चरे आयतुले पयासु । आयं न कुज्जा इह जीवियट्ठी, चयं न कुज्जा सुतवस्सि भिक्खू ॥३॥
संस्कृत छाया स्वाख्यातधर्मा विचिकित्सातीर्णः, लाढश्चरेदात्मतुल्य: प्रजासु । आय न कुर्यादिह जीवितार्थी, चयं न कुर्यात् सुतपस्वी भिक्षुः ।।३।।
अन्वयार्थ (सुयक्खायधम्मे) श्रुत और चारित्रधर्म का भली-भाँति प्रतिपादन करने वाला (वितिगिच्छतिणे) तथा वीतरागप्ररूपित धर्म में चिकित्सा --शंका से ऊपर उठा हुआ--पारंगत। (लाढे) प्रासुक आहार पानी तथा एषणीय अन्य उपकरण आदि से अपना निर्वाह करने वाला। (सुतवस्सि भिक्खू ) उत्तम तपस्वी एवं भिक्षाजीवी साधु (पयासु आयतुले) पृथ्वीकाय आदि प्राणियों के प्रति आत्म-तुल्य होकर (चरे) विचरण या व्यवहार करे, अथवा धर्माचरण करे। (इह जीवियट्ठी आयं न कुज्जा) इस लोक में चिरकाल तक जीने की इच्छा से आय - धन की आमदनी (कमाई) न करे, अथवा आस्रवों की आय-वृद्धि न करे। (चयं न कुज्जा) तथा भविष्य के लिए धन-धान्य आदि का संचय न करे ।
भावार्थ श्रुत-चारित्रधर्म का सम्यक् व्याख्याता, तीर्थंकरोक्त धर्म में शंका से दूर, प्रासुक आहार एवं एषणीय उपकरण आदि से निर्वाह करने वाला उत्तम तपस्वी भिक्षाजीवी साधु समस्त जीवों को अपने समान समझता हुआ संयम का पालन या धर्म का आचरण करे। वह इस लोक में चिरकाल तक जीने की इच्छा से किसी प्रकार का धनार्जन न करे, या आस्रवों की
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