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वीर्यं : अष्टम अध्ययन
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चुका है । अब यहाँ से पण्डितों (उत्तम ज्ञानी साधुओं) के अकर्मवीर्य के सम्बन्ध में सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी आदि से कहते हैं - " मैं कहता हूँ, सुनो।"
मूल पाठ दविए बंधमुक्के, सव्वओ छिन्नबंधणे । पणोल्ल पावकं कम्मं, सल्लं कंतति अंतसो ॥१०॥ संस्कृत छाया
द्रव्यो बन्धनान्मुक्तः सर्वतश्छिन्नबन्धनः ।
प्रणुद्य पापकं कर्म, शल्यं कृन्तत्यन्तशः ॥ १० ॥ अन्वयार्थ
( दविए) मुक्ति जाने योग्य भव्य पुरुष ( बंधणुम्मुक्के) बन्धन से मुक्त होकर, (छिनबंधणे ) बन्धनों को सर्वथा छिन्न-भिन्न करके ( पावकं कम्मं पणोल्ल) पापकर्म को छोड़कर (अंतसो सल्लं कंतति ) अन्त में समस्त शल्यरूप कर्मों को काट देता है । भावार्थ
मुक्तिगमन योग्य -- भव्यपुरुष बंधनों से प्रकार के बंधनों को छिन्न-भिन्न कर देता है । छोड़कर अन्त में अपने शुभ-अशुभ सभी कर्मों को
व्याख्या
पण्डितवीर्य के धनी की विशेषताएं
इस गाथा में पण्डितवीर्य के धनी की कुछ विशेषताएँ बताते हैं- 'दविए बंधमुक्के, सव्वओ छिन्नबंधणे पणोल्ल पावकं कम्मं, सल्लं कंतति अंतसो ।' द्रव्य शब्द भव्य अर्थ में है, अर्थात् जो मोक्षगमन के योग्य हो । अथवा द्रव्य का अर्थ हैरहित होने के कारण जो पुरुष द्रव्यभूत यानी कषायरहित हो, अथवा वीतराग के समान अल्पकषाय हो । यहाँ एक प्रश्न होता है - छठे गुणस्थानवर्ती सरागसंयमस्थ साधक क्या कषायरहित कहा जा सकता है ? इसका समाधान यह है कि हाँ, उसे कषायरहित कहा जा सकता है, क्योंकि कषाय होने पर भी जो पुरुष उसे उदय में आने से दबा देता है, वह भी वीतरागतुल्य है । चूँकि कषाय होने पर ही कर्म का स्थितिकाल बँधता है, इसलिए कषाय ही बन्धनरूप है । पण्डितवीर्ययुक्त साधक पूर्वोक्त दृष्टि से कषायरहित होने से बन्धन से उन्मुक्त कहा गया है । जैसे
मुक्त होता है । वह सब पहले सब पाप कर्मों को काट देता है ।
१ कि सक्का वोत्तुं जे सरागधम्मंमि कोइ अकसायी ?
संतेवि जो कसाए निगिण्हइ सोऽवि तत्त्ल्लो ।'
२ 'बंधट्ठई कसायवसा ।'
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