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सूत्रकृतांग सूत्र
की शक्ति जल में देखी जाती है, वैसे आन्तरिक मल को दूर करने में भी जल समर्थ है। इसलिए शीतलजलसेवन मोक्ष का कारण है। कई तापस या अग्निहोत्री ब्राह्मण आदि हम करने से मोक्ष बताते हैं। वे कहते हैं—समिधा, घी आदि हव्यसामग्री से अग्नि को तृप्त करना चाहिए, क्योंकि यह जैसे सोने के मैल को जला देती है, वैसे ही तृप्त होने पर आत्मा के आन्तरिक मैल-पाप को भी जला देगी। पापदहन ही मोक्ष है। आगे की गाथाओं में शास्त्रकार क्रमशः इन मतों का निराकरण करते हैं ----
मूल पाठ पाओसिणाणादिसु णत्थि मोक्खो, खारस्स लोणस्स अणासणेणं । ते मज्जमंसं लसुणं च भोच्चा, अनत्थ वासं परिकप्पयंति ॥१३।। उदगेण जे सिद्धिमुदाहरंति, सायं च पायं उदगं फुसंता । उदगस्स फासेण सिया य सिद्धि, सिज्झिसु पाणा बहवे दगंसि ॥१४॥ मच्छा य कुम्मा य सरीसिवा य मग्गू य उठा दगरक्खसा य । अट्ठाणमेयं कुसला वयंति, उदगेण जे सिद्धिमुदाहरंति ॥१५॥ उदयं जइ कम्ममलं हरेज्जा, एवं हं इच्छामित्तमेव । अंध व णेयारमणुस्सरित्ता, पाणाणि चेवं विणिहंति मंदा ॥१६॥ पावाई कम्माइं पकुव्वतो हि, सीओदगं तु जइ तं हरिज्जा । सिज्झिसु एगे दगसत्तघाई मुसं वयंते जलसिद्धि माहु ॥१७।। हुतेण जे सिद्धिमुदाहरंति, सायं च पायं अणि फुसंता । एवं सिया सिद्धि हवेज्ज तम्हा, अणि फुसंताण कुकम्मिणपि ।।१८।। अपरिक्ख दिळं ण हु सिद्धि, एहिति ते धायमबुज्झमाणा ।। भूएहिं जाणं पडिलेह सातं, विज्जं गहाय तसथावरेहि ॥१६॥
संस्कृत छाया प्रातः स्नानादिषु नास्ति मोक्षः, क्षारस्य लवणस्यानशनेन । ते मद्यमांसं लशुनञ्च भुक्त्वा, अन्यत्र वासं परिकल्पयन्ति ॥१३।। उदकेन ये सिद्धि मुदाहरन्ति, सायं च प्रातरुदकं स्पृशन्तः । उदकस्य स्पर्शन स्याच्च सिद्धिः, सिध्येयुः प्राणाः बहव उदके ॥१४॥ मत्स्याश्च कश्चि सरीसृपाश्च, मद्गवश्चोष्ट्रा उदकराक्षसाश्च ।। अस्थानमेतत्कूशला वदन्ति, उदकेन ये सिद्धि मुदाहरन्ति ॥१५॥
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