SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 724
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कुशील-परिभाषा : सप्तम अध्ययन ६७६ मूल पाठ जाईपहं अणुपरिवटमाणे, तसथावरेहि विणिघायमेति । से जाइजाइं बहुकरकम्मे, जं कुब्वइ मिज्जइ तेण बाले ।।३।। अस्सि च लोए अदुवा परत्था, सयग्गसो वा तह अन्नहा वा। संसारमावन्न परं परं ते, बंधंति वेदंति य दुन्नियाणि ॥४॥ संस्कृत छाया जातिपथमनपरिवर्तमानस्त्रसस्थावरेष विनिघातमेति । स जातिजाति बहा रकर्मा, यत्करोति म्रियते तेन बालः ॥३॥ अस्मिश्च लोके अथवा परस्तात् शताग्रशो वा तथाऽन्यथा वा । संसारमा पन्नाः परं परं ते, बध्नन्ति वेदयन्ति च दुर्नीतानि ।।४।। अन्वयार्थ (जाइपह) एकेन्द्रिय आदि जातियों में (अणुपरिवट्टमाणे) बार-बार जन्मता और मरता हुआ (से) वह जीव (तसथावरेहि) त्रस और स्थावर जीवों में उत्पन्न होकर (विणिघाय मेति) बार-बार नाश होता है, (जाइ-जाई बहुकूरकम्मे) बारबार जन्म लेकर बहुत क्रूर कर्म करने वाला वह (बाले) बाल-अज्ञानीजीव (जं कुव्वइ) जो कर्म करता है (तेण मिज्जइ) उसी से मृत्यु को प्राप्त होता है ॥३॥ (अस्सि च लोए) इस लोक में (अदुवा परत्था) अथवा परलोक में वे कर्म अपना फल देते हैं । (सयग्गसो वा तह अन्नहा वा) वे एक जन्म में अथवा सैकड़ों जन्मों में फल देते हैं। जिस प्रकार वे कर्म किये गए हैं, उसी तरह अपना फल देते हैं अथवा दूसरी तरह भी देते हैं । (संसारमावन्न ते) संसार में परिभ्रमण करते हुए वे कुशील-जीव (परं परं) बड़े से बड़ा दुःख भोगते हैं । (बंधति वेदंति य दुन्नियाणि) वे आर्तध्यान करके फिर कर्म बाँधते हैं और अपने दुर्नीतियुक्त पापकर्मों का फल भोगते हैं ॥४॥ भावार्थ एकेन्द्रिय आदि पूर्वोक्त प्राणियों को दण्ड देने (उपमर्दन करने) वाला जीव बार-बार उन्हीं एकेन्द्रिय आदि योनियों में जन्मता और गरता है। वह उन बस स्थावर योनियों में उत्पन्न होकर घात को प्राप्त होता है। एक जाति से दूसरी जाति में जन्म ग्रहण करके वह अत्यन्त क्रूरकर्मा अज्ञानी जीव अपने ही किये हुए पापकर्मों के कारण मारा जाता है, जन्म मरण करता है। कोई कर्म इसी जन्म में अपना फल कर्ता को दे देता है, जबकि कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy