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सूत्रकृतांग सूत्र
जो जरायु चमड़े की झिल्ली में लिपटे हुए जन्म लेते हैं, जैसे मनुष्य, गाय, भैंस आदि । संस्वेदज वे कहलाते हैं, जो पसीने से उत्पन्न होते हैं, जैसे जूं, लीख, खटमल, चीचड़ आदि । रसज वे कहलाते हैं, जो दही, कांजी, आदि रसों के विकृत हो जाने पर उत्पन्न होते हैं, जैसे बिगड़ा हुआ अत्यन्त खट्टा, रसचलित तथा सड़ा हुआ दही, कांजी, अथवा शराब आदि । ये सब त्रस जीवों के प्रकार हैं।
पृथ्वीकायिक आदि स्थावर एवं द्वीन्द्रिय आदि सरूप में जीवों के मोटे तौर से भेद बताकर शास्त्रकार उनके उपमर्दन-हिंसा में क्या-क्या दोष होते हैं ? क्याक्या हानियाँ हैं ? इसे बताते हैं -- 'एयाइं कायाई.. ... एएसु य विप्परियासुविति ।'
__ आशय यह है कि सर्वज्ञ तीर्थकरों ने स्थावर जीवों के ५ एवं त्रसजीवों का एक यों षट् छह) जीवनिकाय बताये हैं। उन्होंने अपने केवलज्ञान के महाप्रकाश में पृथ्वी आदि में जीवों की सत्ता देखकर संसार को बताई है । उन्होंने यह भी कहा कि इन सभी (चाहे छोटे हों या बड़) जीवों में सुख की इच्छा होती है, यह समझ लेना चाहिए । आशय यह है कि प्रत्येक प्राणी सुख से जीना चाहता है, कोई भी प्राणी दु:ख नहीं चाहता। दुःख से सभी को नफरत होती है। यह जानकर फिर सूक्ष्मबुद्धि से विचार करो कि जैसे मुझे कोई किसी भी प्रकार से पीड़ा देता है तो मुझे दुःख होता है, वैसे ही इनको पीड़ा देने पर इन्हें भी दु:ख होगा। साथ ही क्रिया की प्रतिक्रिया भी होती है, किसी भी प्राणी को पीड़ा देने, उसका घात करने या क्षति पहुँचाने से उसे दु:ख होने के साथ-साथ पीड़ा आदि पहुँचाने वाले (हिंसक) की आत्मा भी पापकर्मबन्धन से भारी हो जाती है, और उसके परिणामस्वरूप भयंकर दण्ड दूसरे जन्म में भोगना पड़ता है। निष्कर्ष यह है कि दूसरों को पीड़ित करना अपनी आत्मा को पीड़ित या दण्डित करना है। इनकी हिंसा करने से हिंसाकर्ता को भयंकर कष्ट के रूप में उसका मूल्य चुकाना पड़ता है । अथवा जो जीव इन प्राणियों को चिरकाल तक दण्ड देते हैं, पीड़ा पहुँचाते हैं, उनकी क्या दशा होती है, वह शास्त्रकार के शब्दों में सुनिये—'एएसु य विप्परियासुविति ।'
अर्थात् -- पूर्वोक्त पृथ्वीकाय आदि जीवों को पीड़ा देने वाले जीव, इन्हीं पृथ्वीकाय आदि योनियों में बार-बार जन्म लेते हैं । अथवा 'विपर्यास को प्राप्त होते है' इसका अर्थ यह भी है कि जो जीव सुख की प्राप्ति के लिए जीवों का आरम्भ (हिंसा) करते हैं, उन्हें उससे सुख के बदले उलटा दुःख ही मिलता है, सुख कदापि नहीं मिलता । अथवा कुतीर्थीगण मोक्ष के लिए इन प्राणियों का उपमर्दन करके जो क्रिया करते हैं, उन्हें मोक्ष के बदले संसार-जन्ममरण के चक्र-की ही प्राप्ति होती है।
उक्त प्राणियों को दण्ड देकर मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले जीव मोक्ष के बदले संसार को कैसे प्राप्त करते हैं ? यह अगली गाथाओं में बताते हैं
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