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कुशील - परिभाषा : सप्तम अध्ययन
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निरूपण किया गया है । नियुक्तिकार के शब्दों में इस अध्ययन में विवक्षित कुशीलवर्णन देखिए
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अफासुयपडिसेवि णामं भुज्जो य सीलवादी य । फासु वयंति सील अफासुया मो अजंता जइ णाम गोयमा चंडी देवगा वारिभद्दगा चेव जे अग्गिहोत्तवादी जलसोयं जे य इच्छंति कुत्सित-निन्दित या बुरे शील वाले परतीर्थिक और पार्श्वस्थ आदि तथा अन्य जो भी अविरत हैं, उनका इस कुशील - परिभाषा नामक अध्ययन में वर्णन है । इस लोक में धर्मध्यान, अध्ययन, सदनुष्ठान आदि को छोड़कर तथा धर्म के आधारभूत अपने शरीर के पालन के लिए आहार की प्रवृत्ति को छोड़कर अन्य सांसारिक प्रवृत्ति करते हैं, वे कुशील या दुःशील हैं । सुशील - कुशील की इसी परिभाषा को लेकर इस अध्ययन में विचार किया गया है ।
इस दृष्टि से जो कुतीर्थिक, तथा स्वयूथिक स्वच्छन्दाचारी, पार्श्वस्थ आदि सचित्त वस्तु ( पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति या द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीव या सजीव निष्पन्न सजीव पदार्थ ) का सेवन करते हैं, वे अप्राकप्रतिसेवी हैं, फिर भी वे धृष्टतापूर्वक अपने आपको सुशीलवान् कहते हैं, मगर वे सुशीलवान नहीं हैं, क्योंकि विद्वान् पुरुष अचित्त वस्तु सेवन को ही शील कहते हैं । आशय यह है कि प्रासुक और उद्गम आदि दोषरहित आहार सेवन करने वाले साधु शीलवान कहलाते हैं; अन्य नहीं । इस विषय में नियुक्तिकार कुछ नाम लेकर बताते हैं - गोव्रतिक, चण्डी - उपासक, वारिभद्रक, अग्निहोत्रवादी, जलशोचिक, भागवत, पार्श्वस्थ अवसन्न, अपछन्द आदि स्वयूथिक जो उद्गामादि दोषयुक्त आहारभोजी हैं, ये, और इस प्रकार के व्यक्तियों की गणना कुशील में की जाती है । गोव्रतिक वे लोग हैं, जो प्रशिक्षित ( सिखाये हुए) छोटे से बैल को लेकर अन्न आदि के लिए घर-घर घूमते हैं । दूसरे चण्डी- उपासक हैं, जो हाथ में चक्र धारण करते हैं, चण्डी की उपासना करते हैं, पशुबलि देते या दिलाते हैं। तीसरे हैं -- वारिभद्रक, जो सचित्त जल पीकर रहते हैं अथवा शैवाल खाकर जीते हैं, प्रतिदिन कई बार स्नान तथा बार-बार हाथ-पैरों के धोने आदि में रत रहते । चौथे हैं - अग्निहोत्रवादी, जो अग्नि में होम करने से ही स्वर्गप्राप्ति बताते हैं, इसके बाद भागवत आदि हैं, जो रातदिन जलशौच आदि में ही संलग्न रहते हैं, ये और इस प्रकार के अन्य जो भी सचित्त (सजीव ) पदार्थसेवी हैं, यानी धर्म या साधना के नाम पर एकेन्द्रियादि जीवों का उपमर्दन करते हैं, इसलिए कुशील में परिगणित होते हैं । इनके अतिरिक्त स्वथिक भी पार्श्वस्थ अवसन्न, कुशील, अपछन्द, आदि जो उद्गमादि दोषयुक्त आहार सेवन करते हैं, वे भी कुशील में गिने जाते हैं ।
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