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समय : प्रथम अध्ययन ----प्रथम उद्देशक
स्वरूप क्या है ? मैं अपने असली स्वरूप को छोड़कर किसके साथ सम्बन्धित होकर चिपटा हुआ हूँ ? इस सम्बन्ध या बन्धन को रखू या इसका त्याग कर दूं?"१
यह है सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से युक्त बोध, जिसे शास्त्रकार बोधि कहते हैं । यही बोध दुर्लभ और बहुत मँहगा है । इसी बोध को प्राप्त करने का भगवान महवीर का संकेत है। इसके लिये शास्त्रकारों और जैनाचार्यों ने बोधिदुर्लमअनुप्रेक्षा (भावना) बताई है, जिसमें यह चिन्तन करना होता है कि अनादिकाल से सांसारिक प्रपंच जाल में विविध दुखों के प्रवाह में बहते हुए और मोह आदि कर्मबन्धन के तीव्र आघातों को महते हुए जीव को शुद्ध दृष्टि और शुद्ध ज्ञान (बोधि) का प्राप्त होना दुर्लभ है।
___ जब मनुष्य इस बात का बोध प्राप्त कर लेगा कि मैं शुद्ध, बुद्ध, निरंजन, निराकार, अविनाशी, अनन्त ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्य-सम्पन्न आत्मा हूँ। परन्तु शरीर
और उनमें भी मनुष्य शरीर के साथ मेरा सम्बन्ध क्यों और कैसे हुआ ? अमुक अमुक शुभाशुभ कर्मबन्धन के फलस्वरूप मुझे मनुष्य जन्म मिला है और मैं मनुष्य शरीर आदि से सम्पृक्त हुआ हूँ। ये बन्धन हेय हैं, ज्ञेय हैं या उपादेय हैं ? ऐसे और इस प्रकार से आत्म स्वरूप का सर्वप्रथम बोध प्राप्त करना आवश्यक है।
बन्धन को जानो, समझो और तोड़ो आत्मा तो निश्चयनय की दृष्टि से अपने आप में स्वतंत्र है, बन्धन-मुक्त है, फिर भी वह बन्धन में पड़ा है । इसलिये भगवान महावीर ने वोध प्राप्त करने के उपदेश से लगता ही दूसरा उपदेश दिया--
बंधणं परिजाणिया, तिउटिज्जा। अर्थात् ----पहले बन्धन को जानो, समझो और फिर उसे तोड़ो।
आत्मा का वास्तविक स्वरूप बन्धनमय नहीं है, किन्तु वर्तमान समय में तुम्हारी यह आत्मा बन्धनवश हो रही है । यह सम्यग्दृष्टि को भान हो जाता है और १. जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य ने भी आत्मस्वरूप के बोध की ओर इगित किया है
को अहं ? कथमिदं जातं ? को वै कर्ता अस्य विद्यते ?
उपादानं किमस्तीह, विचारः सोऽयमीदृशः ? ॥ --मैं कौन हूँ ? मेरा यह स्वरूप (मनुष्य जन्म) कैसे हुआ ? इसका कर्ता कौन है ? इसमें मेरा उपादान क्या है ? कौन सा है ? इस प्रकार का विचार ही वास्तव में विवेकख्याति है ।
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