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________________ ६०० मूल पाठ सया कसिणं पुण घम्मठाणं गाढोवणीयं अतिदुक्खधम्मं । अंदू पक्खिप्प वित्त देहं वेहेण सीसं सेऽभितावति ॥ २१ ॥ संस्कृत छाया सूत्रकृतांग सूत्र सदा कृत्स्नं पुनर्धर्मस्थानं, गाढोपनीतमतिदुःखधर्मम् I अदूषु प्रक्षिप्य विहृत्य देहं वेधेन शीर्षं तस्याभितापयन्ति ||२१|| अन्वयार्थ ( सथा कसिणं पुण घम्मठाणं) नारकी जीवों के रहने का पूरा का पूरा स्थान सदा गर्म होता है, (गाढोवणीयं ) और वह स्थान उन्हें गाढबन्धन से बद्ध (निधत्त - निका चितरूप) कर्मों के कारण प्राप्त हुआ है । ( अतिदुक्खधम्मं ) अत्यन्त दुःख देना ही उस स्थान का धर्म - स्वभाव है । ( अंदूसु पक्खिप्प ) नरकपाल नारकी जीवों के शरीर को बेड़ी आदि बन्धनों में डालकर ( देहं विहत्त) उनके शरीर को तोड़-मरोड़ कर तथा ( वेहेण सीस) उनके मस्तक में छिद्र करके ( अभितावयंति से) उन्हें पीड़ित करते हैं । भावार्थ नारकी जीवों के रहने का सारा का सारा स्थान सदा गर्म रहता है । वह स्थान उन्हें निधत्त निकाचितरूप गाढ़बन्धन से बद्ध कर्मों के कारण प्राप्त हुआ है । उस स्थान का स्वभाव अत्यन्त दुःख देना है । उस स्थान में नारकी जीवों के शरीर को तोड़-मरोड़ कर तथा उसे बेड़ी आदि बन्धनों में डालकर उनके मस्तक में छेद करके नरकपाल उन्हें दुःखित करते हैं । व्याख्या दुःखों और सन्तापों से भरा नरकालय इस गाथा में नारक जीवों के रहने के स्थान का वर्णन किया गया है । कोई यह न समझे कि नरक में कहीं तो कम गर्म स्थान होगा, शास्त्रकार स्वयं समाधान करते हैं कि नारकों के आवासस्थान में कहीं भी किसी भी समय कोई भी कोना ऐसा नहीं होता, जो गर्म न हो, समूचा स्थान सदैव उष्ण रहता है । उसमें नरक के जीव सकते रहते हैं । उस स्थान का वातावरण सदा ही दुःखमय रहता है । कहीं भी और कदापि सुख नहीं मिल सकता । स्थानकृत दुःख के अतिरिक्त नरकपालों द्वारा उन्हें बेड़ी आदि बन्धनों में जकड़ दिया जाता है, फिर उनके अंगोपांग तोड़-मरोड़े जाते हैं, तथा उसके मस्तक को शूल से बींधकर पीड़ा दी जाती है । उनके अंगों को फैलाकर उनमें इस तरह कील ठोकते हैं जैसे चमड़े को फैलाकर उसमें कील ठोकी जाती है । नरकस्थान और उसमें इतने दुःख की प्राप्ति उनके निधत्त - निकाचित कम का परिणाम है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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