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समय : प्रथम अध्ययन--
पण
क्षेत्रसमय कहते हैं। आकाश एक परमाणु से भी पूर्ण होता है, दो से भी और सौ लाख से भी पूर्ण होता है । अथवा जिस क्षेत्र या प्रदेश (प्रान्त या राष्ट्र) का जो स्वभाव है, उसे भी क्षेत्र-समय कहते हैं। देवकुरु आदि क्षेत्रों का स्वभाव है कि उनमें रहने वाले प्राणी बड़े सुखी, सुन्दर एवं निर्वैर होते हैं अथवा धान्यादि बोने के लिए खेत को शुद्ध करने का जो अवसर होता है, उसे भी क्षेत्रसमय कहते हैं। कुतीर्थसमय -- पाखण्डियों का अपना-अपना आगम-विशेष 'कुतीर्थ समय' कहलाता है। अथवा पाखण्डियों के आगमों में उक्त अनुष्ठान विशेष को भी 'कुतीर्थ समय' कहते हैं। संगारसमय---संगार का अर्थ है--संकेत । संकेत रूप जो समय है, उसे संगारसमय कहते हैं । जैसे सिद्धार्थ सारथि देव ने पूर्व संकेतानुसार हरि के शव को ग्रहण किये हुये बलदेव को प्रतिलोध दिया था। कुलसमय कुल के आचार को कहते हैं । जैसे पितृ शुद्धि शक जाति का तथा मंथनिका शुद्धि अहीर जाति का कुलाचार है। गणसमय -- किसी संघ का आचार 'गणसमय' कहलाता है । जैसे मल्ल लोगों का आचार था कि जो अनाथ मल्ल मर जाता है, उसका दाह संस्कार भी मल्ल लोग ही करते हैं। संकरसमय-संकर का अर्थ है --विभिन्न जाति वालों का सम्मिलन । उन संकर का, विभिन्न जाति समूह का ----एकमत होकर रहना संकरसमय है। जैसे वापमार्गो विभिन्न जातीय होते हुए भी अनाचार करने में एकमत होते हैं । गंडीसमय --विभिन्न सम्प्रदायों की प्रथा को 'गंडी समय' कहते हैं, जैसे शाक्य लोग भोजन के समय गंडी का ताड़न करते हैं। भावसमयविभिन्न अनुकूल एवं प्रतिकूल सिद्धान्तों को भावसमय कहते हैं ।
प्रकृत अध्ययन 'समय' में भावसमय का ही ग्रहण किया गया है, शेष समयों का यहाँ प्रसंग नहीं है, इसलिये यहाँ भावस मय को छोड़कर शेष पूर्वोक्त विभिन्न समय केवल ज्ञेय हैं, उपादेय नहीं है ।
प्रथम अध्ययन के उद्देशक और अर्थाधिकार 'समय' नामक प्रथम अध्ययन में चार उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश, ये सर्वलोकव्यापी पंचमहाभूत हैं, यह प्रथम अर्थाधिकार है । चेतन और अचेतन (जड़) ये सभी पदार्थ आत्मा के परिणाम हैं, इस प्रकार आत्माद्वैतवाद का प्रतिपादक दूसरा अर्थाधिकार है । 'वही जीव है, वही शरीर है,' यानी जीव और शरीर एक है, यह तीसरा अर्थाधिकार है। तथा पुण्य और पाप आदि सभी क्रियाओं को जीव नहीं करता, इस प्रकार कहने वाले वादी का चौथा अर्थाधिकार है । पाँच महाभूत और छठा आत्मा है, यह पाँचवाँ अर्थाधिकार है । किसी भी क्रिया का फल नहीं होता, इस मत का जिसमें प्रतिपादन किया गया है, यह छठा अर्थाधिकार है।
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