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________________ ५६४ सूत्रकृतांग सूत्र व्याख्या छटपटाते नारकों को गर्म रक्तपूर्ण कड़ाही में इस गाथा में परमाधार्मिक असुरों द्वारा नारकों का रक्त निकाल कर उन्हें कड़ाही में उबलते हुए गर्मागर्म रक्त में झौंक देने का करुण वर्णन हैं । इतना ही नहीं, पहले उनकी खोपड़ी फोड़कर चूर-चूर कर दी जाती है, फिर उनके शरीर से खून निकालकर कड़ाही में डाला जाता है, तत्पश्चात् उनके शरीर जब मल से सूज जाते हैं और जिंदी मछली की तरह पीड़ा के कारण छटपटाने लगते हैं, जब उन्हें ज्यों के त्यों अधोमुख उठाकर लोहे की कड़ाही में डालकर पकाते हैं । जिस समय उन नारकों को पकाया जाता है, उस समय असह्य वेदना से विकल होकर वे अपने अंगों को इधर-उधर पछाड़ते हैं । पर क्रू र नरकपालों को उन पर कोई दया नहीं आती। मूल पाठ नो चेव ते तत्थ मसीभवंति, ण मिज्जंती तिव्व भिवेयणाए । तमाणुभागं अणुवेदयंता, दुक्खंति दुक्खी इह दुक्कडेणं ॥१६॥ संस्कृत छाया नो चैव ते तत्र मषीभवन्ति, न म्रियन्ते तीव्राभिवेदनया। तमनुभागमनुवेदयन्तः दुःखयन्ति दुःखिन इह दुष्कृतेन ॥१६॥ अन्वयार्थ (तत्थ) नरक की उस आग में (ते) वे नारकी जीव (नो चेव मसीभवंति) जलकर भस्म नहीं हो जाते, (तिव्वाभिवेयणाए) नरक की तीव्र पीड़ा से भी (ण मिज्जंती) वे मरते नहीं हैं, किन्तु (तमाणुभागं अणुवेदयंता) नरक के तीव्रपीड़ारूप उक्त कर्मफल के भोगते हुए वे वहीं रहते हैं । (इह दुक्कडेणं) इस (मनुष्य) लोक में किये हुए दुष्कर्मों-पापकर्मों के कारण वे (दुक्खी दुक्खंति) नारकी तीव्र पीड़ा से दुःखित होकर दुःख पाते रहते हैं। भावार्थ वे नारकी जीव नरक की उस अग्नि में जलकर स्वाहा नहीं हो जाते, और न ही वे नरक की तीव्र यातना से मरते हैं, किन्तु बहत काल तक वे नरक के तीव्र पीड़ारूप उक्त कर्मफल को भोगते हुए वहीं रहते हैं । इस लोक में किये हुए दुष्कर्मों के फलस्वरूप वे वहाँ नरक की तीव्र पीड़ा से दुःखी होकर दुःख पाते रहते हैं। व्याख्या न भस्मीभूत, न मृत, फिर भी चिरकाल तक दुःखित इस गाथा में नारकी जीवों की विशेषता का वर्णन करते हुए शास्त्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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