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स्त्रीपरिज्ञा : चतुर्थ अध्ययन-द्वितीय उद्देशक
५५६ फिर शील भ्रष्ट साधु से उसकी प्रेमिका कहती है-प्रियतम ! अपने राजकुमार से नौनिहाल बच्चे के खेलने के लिए एक मिट्टी की गुड़िया, एक बाजा, झुनझुना और एक कपड़े की गोलाकार बनी गेंद ला दो। वर्षाकाल शीघ्र ही आने वाला है। अतः वर्षा से सुरक्षा के लिए आवास (मकान) और चार मास के हेतू अनाज का प्रबन्ध कर लीजिए ।।१४।।
फिर वह कहती है--प्राणप्रिय ! सोने-बैठने के लिए नये सत से बनी हुई एक सुन्दर मंचिया या खटिया ले आओ तथा घर में इधर-उधर घूमने के लिए एक जोड़ी खड़ाऊं लेते आएँ । मैं गर्भवती हूँ। मेरे गर्भ के दोहद की पूर्ति के लिए अमुक-अमुक वस्तुएँ लाकर दें।
इस प्रकार मोहमूढ़ करने वाली कामिनियाँ दास की तरह अपने वशवर्ती पुरुषों पर आज्ञा चलाती हैं। अगर वे काम नहीं करते हैं तो झिड़कती हैं, कभी मीठे शब्दों में उपालम्भ देती हैं, कभी आँखें दिखाती हैं तो कभी झठी प्रशंसा करके उनसे काम करवाती हैं। इस प्रकार तेली के बैल की तरह ललनासक्त पुरुष रातदिन गृहकार्य में जुटे रहते हैं। साधना को ताक में रख दिया जाता है ।।१५॥
व्याख्या
वशीभूत साधु से स्त्री की मांग पर माँग एक बार जब स्त्री किसी पुरुष की दुर्बलता को जान लेती है और खुल जाती है तो फिर वह बेखटके अपने प्रति अनुरक्त पुरुष से बार-बार नयी-नयी फरमाइश करती रहती है । एक फरमाइश पूरी होते, न होते दूसरी फरमाइश तैयार रखती है। यहाँ शास्त्रकार उसी सम्भावना को प्रगट करते हैं.---'अदु अंजणि गुलियं च ॥
इस गाथा में नारी की ६ माँगें आसक्त पुरुष से है, जो कि सामान्य गृहस्थ नारी की अपने पति से होती हैं। कभी वह कहती है-मेरे पास काजल रखने की डिबिया नहीं है, उसे ला दो। कभी वह फरमाइश करती है-अजी, मेरे लिए कड़े, बाजूबन्द, हार आदि आभूषण तो ला दो, ताकि मैं श्रृंगार कर सकूँ। कभी कहती है---मेरे मनोरंजन के लिए घुघरूदार वीणा ला दीजिए, ताकि मैं अपना और आपका मनोरंजन कर सकूँ। मैं जब अंजन आदि शृंगारप्रसाधन सामग्री और अलंकारों से सुसज्जित होकर धुंघरूदार वीणा बजाऊँगी तो आपका मन प्रसन्न हो उठेगा । कभी कहती है--प्रिय ! आज तो मुझे लोध्र और लोध्र के फूल लाकर दो, जिससे मैं केशों का शृंगार कर सकू। तथा मुझे चिकने बांस से बनी एक बांसुरी ला दो, जिससे मैं अपना मनोरंजन कर सकू। और फिर वह कहती है --- मेरे लिए एक सिद्धगुलिका ला दो, ताकि मेरा यौवन अजर-अमर रहे।
इसके बाद आठवीं गाथा में बताया गया है कि स्त्री फिर उस शीलभ्रष्ट
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