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स्त्रीपरिज्ञा : चतुर्थ अध्ययन - द्वितीय उद्देशक
चाहिए ।
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इस दृष्टि से श्रमण को ज्ञानबल द्वारा भोग की इच्छा एकदम रोकनी
श्रमण के चित्त में पूर्वसंस्कारवश कदाचित् भोगवासना आ जाने पर उसको ज्ञानबल से न रोककर वह उसमें दिलचस्पी लेता हुआ यदि आसक्तिपूर्वक कामभोगों के प्रवाह में बह जाता है, तो वह उसके लिए हास्यास्पद है । लोग उसकी मजाक उड़ाते हुए कहेंगे- वाह रे साधु ! कल तो हमें काम-भोगों को छोड़ने के लिए बढ़चढ़कर कह रहा था, काम-भोगों की निन्दा कर रहा था, आज स्वयं ही कामभोगों में लिपट गया । यह कैसा साधु है ? इस पर किसी प्रकार का विश्वास नहीं करना चाहिए | इसे अपने घर में प्रवेश नहीं करने देना चाहिए।' इस प्रकार वह श्रमण लोगों के लिए अविश्वसनीय, अनादरणीय और अश्रद्धेय बन जाता है । उसके साथ ही प्राय: समस्त साधुओं के प्रति लोगों की अश्रद्धा, अविश्वास और अनादरबुद्धि हो जाती है । वह समस्त श्रमणसंघ के लिए, साथ ही संघनायक के लिए भी लोकविडबना, लोकनिन्दा और घोर आशातना का कारण बन जाता है । इसी आशय को घोषित करने के लिए शास्त्रकार ने श्रमण शब्द एकवचन में प्रयुक्त न करके 'समणाणं' बहुवचन में प्रयुक्त किया है ।
अन्तिम चरण में यह बताया गया है कि जो साधु कामभोगसेवन से इस प्रकार की घोर हानि की उपेक्षा करके भोग सेवन में प्रवृत्त हो जाते हैं, उनकी क्याक्या दशा या बिडम्बना होती है ? अथवा वे इस उत्तम हितशिक्षा को मानकर भोगभोगने में कैसे प्रवृत्त होकर जीवन को नष्ट-भ्रष्ट कर देते हैं ? यह बताने के लिए शास्त्रकार कहते हैं-- 'जह भुञ्जति भिक्खुणो एगे ।'
अतः शास्त्रकार स्त्रीसम्बन्धी भोगों में आसक्त उन भिक्षुओं का आँखों देखा, कानों सुना हाल अगली गाथाओं में क्रमश: बताते हैं
मूल पाठ
अह तं तु भेदमावन्न मुच्छियं भिक्खुं काममतिवट्टं । पलिभिदिया णं तो पच्छा, पादरु मुद्धि पहणंति ॥ २ ॥ संस्कृत छाया
अथ तं तु भेदमापन्नं मूच्छितं भिक्षु काममतिवर्तम् । परिभिद्य तत्पश्चात् पादावुद्धृत्य मूर्ध्नि प्रघ्नन्ति
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अन्वयार्थ
( अह भेदमान्नं) इसके पश्चात् चारित्र से भ्रष्ट हुए, (मुच्छ्यिं) स्त्रियों में आसक्त ( काममतिवट्ट) कामभोगों में दत्तचित्त या कामभोगों में अतिप्रवृत्त ( तं तु भिवखं) उस साधु को वे स्त्रियाँ ( पच्छा पलिभिदिया) बाद में अपने वशीभूत
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