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प्रथम श्रुतस्कन्ध : उपोद्घात
युगप्रधान आचार्य आर्य रक्षित ने वर्तमान युग के साधकों के उपकार के लिए द्वादशांगी को चरणकरणानुयोग, द्रव्यानुयोग, धर्मकथानुयोग और गणितानुयोग रूप चार अनुयोगों में विभक्त कर दिया है । आचारांगसत्र चरणकरण-प्रधान है, सूत्रकृतांग द्रव्यानुयोग एवं चरणकर गानुयोग-प्रधान है।
प्रथम श्रुतस्कंध के एक अध्ययन को छोड़कर शेष सब पद्य में हैं और दूसरा श्रु तस्कंध गद्य-पद्य दोनों में है। नियुक्तिकार ने प्रत्येक अध्ययन में वर्णित विषयों को निम्नोक्त गाथाओं में प्रदर्शित किया है
ससमय-परसमयपरूवणा य णाऊण बुज्झणा चेव । संबुद्धस्सुवसग्गा, थीदोसविवज्जणा चेव ।। उवसग्गभीरुणो थीवसस्स णरएसु होज्ज उववाओ। एव महप्पा बोरो जयमाह तहा जएज्जाह ।। परिचत्त-निसील-कुसील-सुसीलसविग्गसीलवं चेव । णाऊण वोरियदुर्ग पंडियवीरिए पयट्टई (पयहिज्जा)। धम्मो समाहिमग्गो समोसढा चउसु सव्ववादीसु । सीसगुणदोसकहणा, गंथमि सदा गुरुनिवासो ॥ आदाणियसंकलिया आदाणीयंमि आदायचरित।
अप्पगंथे पिडियवयणेणं होइ अहिगारो॥ इसके प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन में स्वसमय-परसमय का निरूपण किया गया है । द्वितीय अध्ययन में कहा गया है कि स्वसमय (सिद्धांत) के गुण और परसमय के दोषों को जानकर मनुष्य को स्वसिद्धांत का बोध प्राप्त करना चाहिए । तृतीय अध्ययन में कहा गया है कि सम्यक्बोध को प्राप्त साधक कैसे उपसर्गों को सहन कर लेता है ? चतुर्थ अध्ययन में स्त्री-सम्बन्धी दोषों से दूर रहने का उपदेश है। पंचम अध्ययन में बताया गया है कि जो पुरुष उपसर्गों को सहन नहीं करता तथा स्त्री के वशीभूत होता है, उसका अवश्य नरकवास होता है । छठे अध्ययन में शिष्यों को उपदेश देते हुए यह कहा गया है कि अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों के सहन करने से
१. सूत्र पढ़कर उसका अर्थ बताना अथवा संक्षिप्तसूत्र का विस्तृत अर्थ के साथ
सम्बन्ध करना अनुयोग कहलाता है। (१) चरणकरणानुयोग-मूलगुणों-उत्तरगुणों को बताना, (२) द्रव्यानुयोग-जीव अजीव आदि द्रव्यों की व्याख्या जिसमें हो, वह । (३) धर्मकथानुयोग—जिसमें अहिंसा आदि धर्मों की व्याख्या की गई हो अथवा धर्म में प्रेरित करने वाली कथाएँ हों, वह । (४) गणितानुयोग - जिसमें गणित यानी संख्यात्मक वर्णन हो, वह ।
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