________________
स्त्रीपरिज्ञा : चतुर्थं अध्ययन – प्रथम, उद्देशक
५१३
किसी युवती की प्रार्थना पर साधु उसके साथ कुकर्म करना हर्गिज स्वीकार न करे । कारण, नरकगमन आदि कुशीलसेवन के परिणामों का ज्ञाता साधु यह भलीभाँति समझ ले कि स्त्री के साथ संसर्ग करना संग्राम में उतरने के समान अतिसाहस का कार्य है ।
साधु स्त्रियों के साथ ग्रामानुग्राम विहार न करे, न उनके साथ एकान्त में बैठे । स्त्रियों की एकान्त संगति करना साधु के लिए लोकापवाद, निन्द्य एवं पापजनक है । कहा भी है
मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत् । बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसाऽप्यत्र मुह्यति 11
अर्थात् -- माँ, बहन एवं पुत्री के साथ भी एकान्त स्थान में नहीं बैठना चाहिए । क्योंकि इन्द्रियाँ बड़ी बलवान् हैं, बड़े-बड़े विद्वानों को भी अकार्य में प्रवृत्त कर देती हैं । इस प्रकार स्त्रीसंसर्गों को हर हालत में टालने से और आत्मभावों में रमण करने से आत्मा सुरक्षित हो जाता है । स्त्रीसंसर्ग समस्त अनर्थों का कारण है, यह जानकर आत्महितैषी साधक को इसका दूर से ही त्याग कर देना चाहिए ।
मूल पाठ आमंतिय उस्सविया भिक्खं आयसा निमंतंति । एताणि चेव से जाणे, सद्दाणि विरूवरूवाणि ॥६॥ संस्कृत छाया
आमंत्र्य उच्छ्राय्य भिक्षुमात्मना निमंत्रयन्ति । एतांश्चैव स जानीयात् शब्दान् विरूपरूपान् ||६ ॥
अन्वयार्थ
( आमंतिय) स्त्रियाँ साधु को संकेत देकर अर्थात् मैं आपके पास अमुक समय आऊँगी, इत्यादि प्रकार से आमंत्रण देकर (उस्सविया) तथा अनेक प्रकार के वार्तालापों से विश्वास देकर ( भिक्खु ) साधु को (आयसा) अपने साथ सम्भोग करने या भोग भोगने के लिए ( निमंतंति) आमंत्रित - प्रार्थना करती हैं । अतः (से) वह ( एयाणि सद्दाणि) स्त्री सम्बन्धी इन शब्दों-बातों को ( विरूवरूवाणि जाणे ) नानाप्रकार के पाशबन्धन समझे ।
भावार्थ
स्त्रियाँ साधु को संकेत देती हैं, कि 'मैं अमुक समय आपके पास आऊँगी,' तथा विविध प्रकार की इधर-उधर की बातों से साधु को विश्वास दिलाती हैं । इसके पश्चात् वे अपने साथ सम्भोग करने के लिए साधु को
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org