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________________ स्त्रीपरिज्ञा : चतुर्थ अध्ययन-प्रथम उद्देशक ५११ संस्कत छाया शयनासनेन योग्येन स्त्रिय एकदा निमंत्रयन्ति । एतानि चैव स जानीयात् पाशान् विरूपरूपान् ॥४॥ अन्वयार्थ (एगता) किसी समय (इथिओ) चालाक स्त्रियाँ (जोगेहि) उपभोग करने योग्य (सयणासणेहि) पलंग, शय्या, आसन आदि का उपभोग करने के लिए (णिमंतंति) साधु को एकान्त में आमंत्रित करती हैं। (से) वह साधु (एयाणि) इन सब बातों को (विरूवरूवाणि) नाना प्रकार के (पासाणि) पाशबन्धन-कामजाल में फंसाने बन्धन (जाणे) समझे। भावार्थ कभी-कभी चालाक स्त्रियाँ साधु को उपभोग्य सुन्दर पलंग, शय्या, आसन आदि पर बैठने के लिए एकान्त में आमंत्रित करती हैं, मनुहार करती हैं। लेकिन विवेकी साधु इन सब बातों को कामजाल में फंसाने के नाना प्रकार के बन्धन समझे। व्याख्या एकान्त में भोग्य पदार्थों की मनुहार : कामपाश के बन्धन साधु कभी कभी इतना बहक जाता है कि उसे होश ही नहीं रहता कि अमुक महिला द्वारा इतनी भक्ति क्यों की जा रही है ? वह भक्ति के बहाने वाग्जाल में फंसकर उसके आमंत्रण पर उसके घर पर या एकान्त में चला जाता है, फिर वह धूर्त नारी साधु को एकान्त में मौका देखकर कामजाल में फंसाने हेतु कहती हैमहात्मन् ! इस पलंग पर, इस गद्दे पर या शय्या पर विराजिए। इसमें कोई सजीव वस्तु नहीं है, प्रासुक है। अच्छा, और कुछ नहीं तो कम से कम इस कुर्सी पर या आरामकुर्सी पर जरा बैठ जाइए। इतनी दूर से चलकर पधारे हैं, जरा इस गलीचे पर बैठकर सुस्ता लीजिए। इस प्रकार चालाक रमणियाँ शयन (शय्या पलंग आदि), आसन (गलीचा, कुर्सी आदि) इत्यादि का उपभोग करने की प्रार्थना करती हैं। परन्तु परमार्थदर्शी, ज्ञेय बातों का ज्ञाता, अनुभवी साधक इन शयन, आसन आदि की प्रार्थनामनुहार को स्त्री के मोहपाश में फँसाने वाले बन्धन समझे । साधु उन प्रलोभनों को स्त्रियों का छलावा समझकर उन स्त्रियों के संग से दूर रहे। कई बार चालाक स्त्रियों की अतीव सेवाभक्ति के प्रलोभनों के कारण उनका संग दुस्त्यज्य होता है, लेकिन विवेकी साधु इन लुभावने फंदों से अपने को बचाए। मूल पाठ नो तासु चक्खु संधेज्जा, नोवि य साहसं समभिजाणे । णो सहियंपि विहरेज्जा, एवमप्पा सुरक्खिओ होइ ॥५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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