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________________ ५१० सूत्रकृतांग सूत्र भी काम - उद्दीपित करने के लिए साधु को दिखलाती हैं ( बाहू उद्धट्टु ) तथा भुजा ऊँची करके (कक् मब्वज्जे) कांख दिखाती हुई साधु के सामने से जाती हैं । भावार्थ स्त्रियाँ साधु को कामजाल में फँसाने के लिए उसके निकट अत्यन्त ( बहुत देर तक या बहुत सटकर ) बैठती हैं और कामपोषक सुन्दर बारीक वस्त्र को ढीला होने का बहाना बनाकर या अपने अंग से फिसल जाने के बहाने बार-बार पहनती हैं । तथा वे अपने जंघा आदि निचले भागों ( गुप्तांगों ) को भी दिखाती हैं । कभी बांहें ऊँची करके अपने कांख दिखाती हुईं साधु के सामने से जाती हैं । व्याख्या स्त्रियों द्वारा कामजाल में फँसाने के लिए अंग प्रदर्शन मायावती स्त्रियाँ साधु को अपने चंगुल में फँसाकर शीलभ्रष्ट करने के लिए जो मोहक तरीके अपनाती हैं, उसे शास्त्रकार इस गाथा में बताते हैं । यहाँ सर्वत्र लिङ् लकार सम्भावना अर्थ में है । अर्थात् साधु के सामने कामुक स्त्रियों द्वारा शीलभ्रष्ट करने के ये उपाय अजमाये जा सकते हैं। कई स्त्रियाँ तो बहुत देर देर तक साधु के पास बैठ जाया करती हैं, या बहुत ही निकट सटकर बैठ जाती हैं । वे पास बैठकर धीरे-धीरे अपना मोहक जाल बिछाती हैं । साधु के प्रति स्नेह प्रगट करती हुईं मीठी-मीठी बातें बनाकर विश्वास पैदा करने हेतु वे उसके अत्यन्त निकट आकर बैठ जाती हैं । अथवा एकान्त में कोई बात कहने के लिए बैठ जाती हैं । कभी-कभी वे कामवृद्धिकारक बारीक सुन्दर कपड़ों को बार-बार सिर से नीचे उतर जाने, फिसल जाने या ढीले हो जाने के बहाने से बार-बार ऊपर करती हैं, बाँधती हैं या पहनती हैं । वे साधु को अपनी कामेच्छा प्रकट करने के लिए प्रायः ऐसा करती हैं । फिर साधु के मन में कामवासना भड़काने के लिए वे जांघ, आदि नीचे के गुप्त अंगों को दिखाती हैं । कभी- कभी अपनी बांहें ऊँची उठाकर काँख दिखलाती हुईं साधु के सामने से होकर जाती हैं, ताकि उसके पुष्ट शरीर, लचकीली कमर, एवं मांसल भुजा को देखकर साधु में कामवासना जाग जाये । fron यह है कि साधु को मोहित करने के लिए स्त्रियाँ इस प्रकार के विविध तरीके अपनाती हैं । मूल पाठ सणासह जोगेह इत्थिओ एगता णिमंतंति । एयाणि चेव से जाणे, पासाणि विरूवरूवाणि ||४|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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