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________________ सूत्रकृतांग सूत्र श्रुत कहलाते हैं । यहाँ द्वादशांगी में से दूसरे अंग के रूप में सूत्रकृतांगसूत्र है, जो द्वितीय अंग है, और अंगप्रविष्ट श्रुत के अन्तर्गत है । ८ सूत्रकृतांग की रचना कब, किसके द्वारा, कैसी मनःस्थिति में ? कई लोग यह शंका करते हैं कि सूत्र रूप में तो अनेक लौकिक शास्त्रों की भी रचना होती है, जैसे वात्स्यायन का 'कामसूत्र' गौतम का 'न्यायसूत्र', कणाद का 'वैशेषिक सूत्र' एवं पातंजल का 'योगसूत्र' आदि । इसी प्रकार वर्तमान में भी अर्थ - शास्त्र, समाजशास्त्र, विधिशास्त्र आदि की भी रचना की जाती है । क्या ये सब भी उत्तम कोटि के मोक्षप्रधान शास्त्र या सूत्र कहलाएँगे ? इसके उत्तर में हम नियुक्तिकार का आशय प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने बताया कि जिस शास्त्र में संवर, निर्जरा, वैराग्य, मोक्ष आदि की आचार-विचार-सम्बन्धी बातें हों, उन्हें ही उत्तम कोटि के लोकोत्तर सूत्र या शास्त्र के रूप में मानना चाहिए। प्रस्तुत सूत्रकृतांगसूत्र की रचना शुभ ध्यान में स्थित, निस्पृह, त्यागी, षड्जीवनिकायरक्षक गणधरों द्वारा की गई है । किस उच्च भावस्थिति में गणधरों ने इस शास्त्र की रचना की थी ? इसे बताते हैं जिनकी कर्मस्थिति न तो जघन्य थी, न उत्कृष्ट थी, उनका अनुभाव ( विपाक ) भी मन्द था । वे मन्द-विपाक वाली ज्ञानावरणीय आदि प्रकृति को बाँधते थे, किन्तु वे उस कर्मप्रकृति को निधत्त निकाचित अवस्था में नहीं स्थिति वाली कर्मप्रकृति को ह्रस्वस्थिति वाली करते थे जाती हुई कर्म स्थिति में मिलाते थे । उदयप्राप्त पहुँचने देते थे एवं दीर्घ तथा उत्तर प्रकृतियों को वे कर्मों की वे उदीरणा करते 1 थे । वे अप्रमत्तगुणास्थानवर्ती थे । साता और असातावेदनीय व आयु की उदीरणा नहीं करते थे । मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तथा उसके अंगोपांग आदि कर्मों के उदय में पुरुषवेद तथा क्षायोपशमिक भाव में वे वर्तमान थे । ऐसे शुभध्यानी गणधरों ने इस सूत्रकृतांगसूत्र की रचना की थी । वह भी अपनी इच्छा या स्वच्छन्दमति से नहीं, किन्तु पहले क्षायिकज्ञान में वर्तमान तीर्थंकरों ने गणधरों को यह सूत्र भलीभाँति कहा था, फिर ग्रन्थ की रचना करने में विघ्नोत्पादक कर्मों के क्षयोपशम हो जाने से एकाग्रचित गौतमादि गणधरों ने तीर्थंकरों के मत यानी उत्पादव्यय - ध्रौव्य-युक्त मातृकादि पदों को सुनकर शुभ अध्यवसाय के साथ इस शास्त्र की रचना की थी । यद्यपि नियुक्तिकार ने ग्रन्थकार के रूप में किसी विशेष व्यक्ति का नाम नहीं बताया है, वक्ता के रूप में जिनवर का तथा श्रोता के रूप में गणधरों का निर्देश किया गया है । नियुक्तिकार का कथन है कि जिनवर का वचन सुनकर अपने क्षयोपशम द्वारा शुभ अभिप्रायपूर्वक गणधरों ने जिस सूत्र की रचना 'कृत' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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