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उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन-चतुर्थ उद्देशक
४८३ वैसे ही कितने ही मिथ्यादृष्टि अनार्य साधु कर्माश्रव की अधिकता से नरक आदि के दुःख प्राप्त करते हैं । वे मुक्तिपथ से विमुख हो जाते हैं ।
इस प्रकार बौद्ध आदि साधकों के पंचाश्रव में पड़ने के कारण पूर्वोक्त सखभोग की मिथ्यामान्यता बनती है।।
- मूल पाठ एवमेगे उ पासत्था, पन्नवंति अणारिया । इत्थीवसंगया बाला, जिणसासणपरम्मुहा ॥६॥ जहा गंडं पिलागं वा, परिपीलेज्ज मुहत्तगं । एवं विन्नवणित्थोसु, दोसो तत्थ कओ सिआ ? ॥१०॥
१. बौद्ध साधुओं के इस प्रकार के आचारशैथिल्य की प्रतिध्वनि थेरगाथा में अंकित
है । वहाँ यह शंका भी व्यक्त की गयी है कि यदि ऐसी ही शिथिलता बनी रही तो बौद्धशासन विनष्ट हो जाएगा। ये पापवासनाएँ उनके अन्दर उन्मत्त राक्षसों जैसी खेल रही हैं। वासनाओं के वश होकर वे सांसारिक वस्तुओं की प्राप्ति में यत्र-तत्र दौड़ लगा रहे हैं। सद्धर्म को छोड़कर असद्धर्म को श्रेष्ठ मानते हैं। भिक्षा के लिए कुकृत्य का आचरण करते हैं। वे सभी शिल्प सीखते हैं और गृहस्थों से अधिकाधिक प्राप्ति की आकांक्षा करते हैं । देखिए थेरगाथा में उनके जीवन का कच्चा चिट्ठा
भेसज्जेसु यथा वेज्जा, किच्चाकिच्चे यथा गिही । गणिका व विभूसायं, इस्सरे खत्तिओ यथा ॥६३८।। नेकतिका वंचनिका कूटसक्खा अपाटुका ।
बहूहि परिकप्पेहि आमिसं परिभुञ्जरे ॥६३६॥ अर्थात्-वे भिक्षु औषधों के विषय में वैद्यों की तरह हैं, काम-धाम में गृहस्थों की तरह हैं, विभूषा करने में गणिका की तरह हैं, ऐश्वर्य (प्रभुत्व) में क्षत्रियों की तरह हैं । वे धूर्त हैं, प्रवंचनिक हैं, ठग हैं, और असंयमी हैं। बहुतसे संस्कार किये हुए मांस का उपभोग करते हैं ।
आगे उसी थेरगाथा (६४०-६४२) में कहा गया है कि वे भिक्षु लोभवश धनसंग्रह करते हैं, स्वार्थ के लिए धर्मोपदेश देते हैं, संघ के भीतर संघर्ष करते हैं तथा परलाभ से जीविका करते हुए लज्जित नहीं होते।
यह सारा शिथिलाचार सूत्रकृतांग (अ०३, उ० ४, गा० ८) में उक्त पंचपापों के आक्षेप की यथार्थता सूचित करता है ।
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