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________________ ४७५ उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन - चतुर्थ उद्देशक 1 सम्यग्दर्शन -ज्ञान- चारित्र की प्राप्ति के कारण ही हुई थी । जैसे - वल्कलचीरी तापस आदि को मुक्ति प्राप्त हुई थी । सर्वविरति - परिणाम तथा भावलिंग के बिना जीवों के विघातक शीतलजल के पान और बीज आदि के सेवन से कर्मक्षयरूपी मोक्ष कदापि प्राप्त नहीं हो सकता है । अगर इस प्रकार से शीतोदक एवं हरी सब्जी आदि के सेवन से ही मोक्ष प्राप्त हो जाता तो ऐसे अनेक तापस भूतकाल में हुए हैं वर्तमान में भी हैं, उन्हें कंद-मूल, फल, एवं शीतलजल के सेवनमात्र से मुक्ति क्यों नहीं और प्राप्त हुई या होती है ? कौन-सा बाधक कारण है ? किन्तु नहीं, जिन्हें भी मुक्ति प्राप्त होती है, उन्हें हिंसा आदि आस्रवों से तथा कषाय-विषयत्याग, रागद्वेषादित्याग एवं सर्वकर्मक्षय से ही होती है; सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय की प्राप्ति से ही होती है । जो साधक इस बात को न समझकर उन्मार्गदर्शकों के चक्कर में फँस जाता है, वह उक्त उपसर्ग से पराजित होकर संयमभ्रष्ट हो जाता है | अतः शास्त्र - कार ने इस गाथा के द्वारा प्रकारान्तर से ऐसे प्रवंचकों के चक्कर में न आने और संयमानुष्ठान को न छोड़ने का संकेत कर दिया है । अब उपसर्ग के सन्दर्भ में 'सुख से सुख की प्राप्ति होती है' इस भ्रान्तिजनक मान्यता का शास्त्रकार निराकरण करते हैं मूल पाठ इहमे उभासंति, सातं सातेण विज्जती जे तत्थ आरियं मग्गं, परमं च समाहिए (यं ) ॥ ६ ॥ संस्कृत छाया इहै तु भाषन्ते, सातं सातेन विद्यते 1 ये तत्र आर्यमार्गं तु परमं च समाधिकम् || ६ || अन्वयार्थ ( इह ) इस मोक्षप्राप्ति के विषय में ( एगे ) कोई (भासंति) कहते हैं कि (सात) सुख ( सातेण ) सुख से ही (विज्जती ) प्राप्त होता हैं । ( तत्थ ) परन्तु इस मोक्ष के सम्बन्ध में (आरियं मग्गं ) समस्त हेय धर्मों से दूर रहने वाला जो मोक्षमार्ग है, (परमं समाहिए ) जो परमशान्ति को देने वाला ज्ञान-दर्शन- चारित्ररूप है, उसे (जं) जो लोग छोड़ते हैं, वे मंदबुद्धि मूढ़ हैं । भावार्थ कई मिथ्यादृष्टि (उत्तरकालीन बौद्ध या अन्य शिथिलाचारी साधक ) कहते हैं कि सुख से ही सुख की प्राप्ति होती है, परन्तु इस मोक्ष के विषय में परमशान्ति को देने वाला तीर्थंकर प्रतिपादित, जो ज्ञान-दर्शन- चारित्ररूप आर्य (मोक्ष) मार्ग है. उसे जो छोड़ते हैं, वे एक प्रकार से अनार्य हैं, मन्दपराक्रमी हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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