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________________ ४७४ सूत्रकृतांग सूत्र एवं नारायणऋषि ने शीतलजल का सेवन करके मुक्ति प्राप्त की थी। आसिल, देवल, महर्षि पायन एवं पाराशर तो कच्चा पानी, बीज एवं हरी वनस्पतियाँ सेवन करके भी मोक्ष पा सके थे । ये सब महापुरुष समस्त भूमण्डल में विख्यात थे, जैनआगमों में भी ये माने गये हैं, ये लोग ठंडे जल और बीज का उपभोग करके सिद्ध हुए हैं, यह मैंने महाभारत आदि पुराणों से सुना है, अथवा अपनी संघीय प्राचीन परम्परा से सुना है । ऐसे कोई कुतीर्थिक अथवा अपने संघ के लोग अपरिपक्व साधुओं को फुसलाकर उन्हें संयमपालन में शिथिल कर देते हैं, अथवा संयमभ्रष्ट कर देते हैं । अपरिपक्व एवं स्थूल बुद्धि वाले साधक अथवा संयम की कठोर चर्या के पालन में दु:ख अनुभव करने वाले साधक इन और ऐसे ही अन्य भ्रान्ति-उत्पादकों या भ्रान्तिजनक दु:शिक्षकों के चक्कर में पड़कर झटपट शीतलजल के सेवन आदि संयमविरुद्ध प्रवृत्ति में पड़ने का फैसला कर लेते हैं। ऐसे बहकाने या फुसलाने वाले लोग इस ढंग से मीठी-मीठी बातें करके और पुराणों में वर्णित कुछ तापसों के जीवन की तथा मोक्षलाभ की दुहाई देते हैं, जिससे अदूरदर्शी भोलाभाला साधक उनके चक्कर में आ जाता है । ऐसे लोगों के कुचक्र में पड़कर वे अपने संयम को कैसे खो बैठते हैं ? यह बात पाँचवीं गाथा में स्पष्ट की है ' तत्थ मंदा विसीयंति पिट्ठसप्पी य संभमे ।' आशय यह है कि ऐसे लालबुझक्कड़ों के वाग्जाल में फँसना भी एक बहुत बड़ा उपसर्ग है । और भोले-भाले मंदपराक्रमी साधक ऐसे उपसर्ग आने पर बहुत जल्दी फिसल जाते हैं । ऐसे फिसड्डी साधकों की मनोवृत्ति को दो दृष्टान्तों द्वारा समझाया गया है — ऐसे संयमभार को सहन करने में पीड़ा अनुभव करने वाले मूर्ख साधक इसी प्रकार तीव्र दु:ख अनुभव करते हैं, जिस प्रकार बोझे से पीड़ित गधे चलने में दुःख महसूस करते हैं । अथवा ऐसे संयम में शिथिल एवं हतोत्साह साधक लकड़ी के टुकड़ों को हाथ में लेकर अग्निकाण्ड आदि का आतंक उपस्थित होने पर भागने वालों के पीछे-पीछे सरक-सरककर चलने वाले उस लँगड़े की तरह हैं, जो तेजी से सरपट मोक्ष की ओर दौड़ लगाने वाले साधकों के पीछे-पीछे रेंगते हुए रोते-पीटते बेमन से चलते हैं । ऐसे कच्चीबुद्धि के साधक ठेठ मोक्ष तक नहीं पहुँच पाते हैं, किन्तु बीच में ही विषयसुखों की भूलभुलैया में फँसकर संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं । वे मंदमति बुरी शिक्षा देकर झटपट बहका देने वाली मिथ्यादृष्टियों की प्ररूपगारूप उपसर्ग के उदय होने पर संयमपालन में तो पीड़ा महसूस करते हैं, किन्तु रोते-पीटते निरुत्साहित होकर संयम पालकर दीर्घकाल तक सांसारिक परिभ्रमण के महादु:ख का ख्याल नहीं करते । वे मूढ़ यह नहीं जानते कि जिन लोगों को भी मोक्ष की प्राप्ति हुई थी, उन्हें किसी कारणवश जातिस्मरणज्ञान के उदय होने से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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