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सूत्रकृतांग सूत्र कायरपुरुष युद्ध के नगाड़े बज रहे हों, उस समय सर्वप्रथम यह सोचता है कि बहुत-से मुहूर्तों या एक ही मुहूर्त का कोई ऐसा क्षण होता है, जिसमें जय-पराजय के फैसले की सम्भावना रहती है। ऐसी दशा में पराजित होकर किसी गुप्त स्थान में छिपना पड़े, यह भी सम्भव है। ऐसा विचार करके कायर पुरुष पहले ही विपत्ति के प्रतिकार के लिए स्थान ढूँढ लेता है।
इन दो गाथाओं में दृष्टान्त देकर अब इस गाथा में दार्टान्तिक प्रस्तुत करते हैं
मूल पाठ एवं तु समणा एगे, अबलं नच्चाण अप्पगं । अणागयं भयं दिस्स, अविकप्पंतिमं सुयं ॥३॥
संस्कृत छाया एवं तु श्रमणा एके, अबलं ज्ञात्वाऽऽत्मानम् । अनागतं भयं दृष्ट्वाऽवकल्पयन्तीदं श्रुतम् ।।३।।
अन्वयार्थ (एवं तु) इस प्रकार (एगे समणा) कोई श्रमण (अप्पगं) अपने आपको (अबलं) जीवनपर्यन्त संयमपालन करने में असमर्थ (नच्चाण) जानकर (अणागयं) भविष्यकालीन (भयं दिस्स) भय (खतरा) देखकर (इमं सुयं) इस व्याकरण, ज्योतिष, वैद्यक आदि शास्त्रों को (अविकप्पंति) अपने निर्वाह के साधन बनाते हैं।
भावार्थ इसी प्रकार कोई श्रमण अपने आपको जीवनभर संयम-पालन करने में अपने को असमर्थ जानकर भविष्य में आने वाले खतरों से बचने के लिए व्याकरण और ज्योतिष आदि शास्त्रों को अपने जीवन-निर्वाह के साधन बनाते हैं।
व्याख्या मन्दपराक्रमी साधक की भावी कल्पना
इस गाथा में पूर्व दृष्टान्तों के साथ दार्टान्तिक घटाते हैं.---'एवं तु · अविकप्पंति ।' आशय यह है कि युद्ध में प्रवेश करने से पहले जैसे कायर पुरुष यह देखता है, कि कदाचित् हमारी पराजय हुई तो मेरी रक्षा के लिए उपयुक्त स्थान कौन-सा होगा ? इसी प्रकार कोई मन्दपराक्रमी साधक अपने आपको जिन्दगीभर चारित्रपालन करने में असमर्थ जानकर भविष्य में संयमत्याग करने से उपस्थित होने वाले खतरों से बचने के लिए सोचता है-अभी मेरे पास न तो धन है, न जीविका का कोई साधन है; रोग, बुढ़ापा, दुर्भिक्ष आदि आकस्मिक संकट के समय मेरी जिन्दगी बचाने या
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