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________________ उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन-द्वितीय उद्देशक ४४३ (कामेहि) कामभोगों में (अन्झोववन्ना) दत्तचित्त पुरुष (चोइज्जता) सयमपालन के लिए प्रेरित किये जाने पर भी (गिहं घर को (गया) चले गये। भावार्थ पूर्वोक्त प्रकार से काम-भोगों के सेवन का आमंत्रण पाकर काम-भोगों में आसक्त, कामिनियों में मोहित, एवं कामभोगों में दत्तचित्त पुरुष संयमपालन के लिए आचार्य, गुरु आदि के द्वारा प्रेरणा दिये जाने पर भी गृहवासी हो चुके हैं। व्याख्या __उपसर्ग-पराजित साधकों की दशा द्वितीय उद्देशक की इस अन्तिम गाथा में शास्त्रकार ने उपसंहार करते हुए यह बताया है कि पूर्वोक्त अनुकूल उपसर्गों से पराजित साधकों की क्या दशा होती है ? यहाँ उनकी तीन विकट दशाओं का वर्णन किया गया है.-- (१) वे विषयभोगों में मुन्छित हो जाते हैं । (२) वे स्त्रियों में मोहित हो जाते हैं। (३) वे काम-भोगों में दत्तचित्त हो जाते हैं । सर्वप्रथम तो पूर्वोक्त रीति से शासकों या वैभवसम्पन्नों तथा कदाचित् स्वजनों द्वारा उन्हें विविध प्रकार के आर्थिक, सुख-सुविधाजन्य, कामजन्य एवं विविध भोग्य-साधनों (हाथी, घोड़े, रथ, पालकी, वस्त्र, सुगन्धित पदार्थ, आभूषण, स्त्रियाँ, शयनसामग्री आदि) के प्रलोभन दिये जाते हैं, विविध प्रकार से उलटे-सीधे ढंग से उन्हें समझाया जाता है, (जिसका वर्णन पूर्वगाथाओं में किया जा चुका है) आखिरी दाँव तक समझाने पर धीरता और दृढ़ता के धनी साधकों में इतना दम नहीं होता कि इतने प्रलोभनों के बाद वे फिसलें नहीं। वे फिसलने लगते हैं और क्रमश: उपर्युक्त तीन अवस्थाओं से पार होते हैं। बीच-बीच में उनके गुरु अथवा आचार्य उन्हें उक्त पतन के गर्त में गिरने से बार-बार रोकते हैं, टोकते हैं, समझाते हैं, असंयम के परिणाम बताते हैं, पर काममोहित बे साधक उन प्रेरकों की बात पर कान नहीं देते, वे अपनी मोहदशा के कारण धुन ही धुन में तीसरी स्टेज पार कर जाते हैं । इसके बाद रुकते नहीं । बदनाम और भ्रष्ट हो जाने के बाद उन्हें पतन के गड्ढे में गिरने के सिवाय और कुछ नहीं सूझता। आखिरकार वे अल्पपराक्रमी व्यक्ति प्रव्रज्या को छोड़कर पुनः गृहस्थवास में चले जाते हैं। यही बात शास्त्रकार कहते हैं- 'चोइज्जता गया गिह ।' इति शब्द समाप्ति का द्योतक है। ब्रवीमि का अर्थ पूर्ववत् है । तृतीय अध्ययन का द्वितीय उद्देशक अमरसुखबोधिनी व्याख्या सहित सम्पूर्ण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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