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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन-तृतीय उद्देशक काम-भोगों को छोड़ देगा, ऐसा विचारमात्र करता है, मगर छोड़ नहीं सकता है । अतः कामी को कामभोगों की कामना ही न करनी चाहिए, और प्राप्त हुए काम-भोगों को भी अप्राप्त की तरह जानकर उनसे निःस्पृह हो जाना चाहिए।
व्याख्या भार ढोने में असमर्थ मरियल बैल विषममार्ग पर नहीं चल सकता जो बैल गाड़ी को ठीक-ठीक वहन नहीं करता, उसे गाड़ीवान चाबुक मारकर चलने के लिए मजबूर करता है, परन्तु दुर्बल होने के कारण वह बैल विषमपथ पर चल नहीं पाता। वह मरणान्त कष्ट पाकर भी दुर्बल होने के कारण भार को ढो नहीं सकता, किन्तु वहीं कीचड़ आदि विषम स्थानों में कष्ट भोगता है। यह पाँचवीं गाथा का आशय है।
दुर्बल बैल जैसे विषममार्ग को नहीं छोड़ सकता अर्थात् उसे पार नहीं कर सकता है वैसे ही कामी पुरुष भी शब्दादि काम-भोगों को नहीं छोड़ सकता। इस प्रकार पूर्वगाथा में दृष्टान्त बताकर अब इस गाथा में दान्ति बताया गया है कि शब्दादि विषयों के अन्वेषण करने में निपुण पुरुष शब्दादि विषयपंक में फंसने पर तथा विषयासक्तिजनित रोग, दुःख या इहलौकिक-पारलौकिक कष्ट को देखकर आज छोड़ देंगे, कल छोड़ देंगे, इस प्रकार का बार-बार विचार करते हैं, लेकिन उक्त दुर्बल बैल की तरह वे शब्दादि कामों को नहीं छोड़ सकते।
कामी के लिए शास्त्रकार का उचित मार्गदर्शन इस गाथा (नं० ६) में शास्त्रकार कामी पुरुष को कामत्याग के लिए दो ठोस उपाय बताते हैं- (१) काम-भोगों की कामना ही न करे और (२) प्राप्त काम-भोगों को भी अप्राप्त की तरह जानकर उनसे नि:स्पृह हो जाए–'कामी कामे ण कामए, लद्ध वावि अल? कण्हुई।' वास्तव में ये दोनों उपाय ठोस हैं । अगर कोई साधक अपने पूर्वजीवन (गृहस्थ-जीवन) में कदाचित् कामी रहा हो, तो उसे काम-भोगों के दुष्परिणामों पर विचार करके वज्रस्वामी या जम्बूस्वामी आदि की तरह कामभोगों की इच्छा ही न करनी चाहिए अथवा स्थूलभद्र या क्षुल्लककुमार की तरह किसी भी निमित्त से प्रतिबोध पाए हुए पुरुष को प्राप्त विषयों को भी अप्राप्त की तरह ही जानकर तथा महासत्त्व बनकर उनसे नि:स्पृह हो जाना चाहिए।
मूल पाठ मा पच्छा असाधुता भवे, अच्चेही अणुसास अप्पगं । अहियं च असाहु सोयती, से थणति परिदेवती बहु ॥७।।
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