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________________ पैतालीय : द्वितीय अध्ययन--द्वितीय उद्देशक ३५५ संस्कृत छाया शीतोदकप्रतिजुगुप्सकस्य अप्रतिज्ञस्य लवावसर्पिणः । सामायिकमाहुस्तस्य यत्, यो गृह्यमत्रेऽशनं न भुक्ते ।।२०।। अन्वयार्थ (सीओदगपडिदुगंछिणो) जो साधु ठण्डे (कच्चे) पानी से नफरत करता तथा (अपडिण्णस्स) किसी प्रकार की प्रतिज्ञा -- मन में किसी प्रकार की सांसारिक कामना का दुःसंकल्प-निदान नहीं करता, एवं (लवावसप्पिणो) लेशमात्र भी कर्म (कर्मबन्धन) से जो दूर----परे रहता है, (जो गिहिमत्त ऽसणं न भुंजती) तथा जो साधु गृहस्थ के पात्र (बर्तन) में भोजन नहीं करता, (तस्स) उस साधु के (सामाइयमाहु जं) समभाव को सर्वज्ञों ने सामायिकचारित्र कहा है । भावार्थ जो साधु ठण्डे कच्चे जल से बिलकूल नफरत करता है, जो किसी प्रकार का विषयभोगप्राप्तिजनक निदान नहीं करता तथा लेशभर कर्मबन्धन से भी दूर भागता है एवं जो साधु गृहस्थ के बर्तन में भोजन नहीं करता, उसी साधु के समभाव को सर्वज्ञों ने सामायिक चारित्र कहा है। व्याख्या सामायिकचारित्री : साधुजीवन की आचारमर्यादा में दृढ़ जो साधु अप्रासुक जल के सेवन से घृणा करता है, प्रतिज्ञा यानी निदान नहीं करता, लेशमात्र भी कर्मबन्धन के कारण से दूर भागता है तथा जो मुनि गृहस्थ के काँसे, ताँबे, चाँदी, सोने या पीतल आदि के बर्तनों में भोजन नहीं करता, ऐसे ही आचारवान् साधु के समभाव को सर्वज्ञों ने सामायिकचारित्र कहा है । यही इस गाथा का आशय है। मूल पाठ ण य संखयमाहु जीवियं तहवि य बालजणो पगब्भइ। बाले पाहि मिज्जती इति संखाय मुणी ण मज्जती ॥२१॥ संस्कृत छाया न च संस्कार्यमाहुर्जीवितं तथाऽपि च बालजनः प्रगल्भते । बाल: पापैर्मीयते इति संख्याय मुनिर्न माद्यति ॥२१॥ अन्वयार्थ (जीवियं) प्राणियों का जीवन (ण य संखयमाहु) जीवनरहस्यज्ञों ने संस्कार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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