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सूत्रकृतांग सूत्र
उसका (अट्ठे ) संयम अथवा मोक्ष ( बहु ) अत्यन्त ( परिहायती ) नष्ट हो जाता है । इसलिए (पंडिए) सद्-असद् विवेकशील साधु ( अहिगरणं) अधिकरण - कलह (न करेज्ज) न करे |
भावार्थ
जो साधु कलहकारी है, जोर-शोर से या बुरी तरह से भयंकर कठोर वचन बोलता है, उसकी मोक्ष-साधना या संयम अत्यन्त नष्ट हो जाता है । इसलिए संयमशील साधु को कलह नहीं करनी चाहिए ।
व्याख्या
कलहकारी साधु संयम का नाशक
इस गाथा में संयमी साधु के लिए कलह बहुत बड़े अनर्थ को पैदा करने वाला बताया है | अधिकरण का अर्थ है-बात को बढ़ा-चढ़ाकर अधिकाधिक तूल देना - बतंगड़ बनाना और विवाद खड़ा करके कलह करना । जिसका अधिकरण करने का स्वभाव है, उसे 'अधिकरणकर' कहते हैं । वास्तव में जो साधु रातदिन कलह करता है अथवा ऐसी कठोर तानेभरी भाषा बोलता है, जिससे कलह पैदा हो, वह शुभध्यान की अपेक्षा रातदिन रौद्रध्यान में डूबा रहता है, उसकी प्रकृति छिद्रान्वेषी बन जाती है । वह जिसके साथ कलह करता है, उसकी निन्दा, चुगली, बदनामी तथा उससे ईर्ष्या, द्वेष, रोष करने लगता है । इस प्रकार कलह के स्वभाव के कारण उक्त साधु में अनेक दोष-पाप घुस जाते हैं, उसका मोक्ष अथवा मोक्ष का कारण संयम खत्म हो जाता है । जो साधु कलह करता है वह दूसरों के चित्त को व्यथित करने वाली तानेभरी तीखी वाणी बोलता है । उसकी वाणी अन्य लोगों के मर्म को छेद देती है । ऐसा साधु बहुत समय तक किये कठिन तप के द्वारा उपाजित पुण्य को क्षय कर डालता है । कहा भी है
जं अज्जियं समीखल्लएहिं तवनियमबंभमाइएहि । मा हु तयं कलहंता छड्डे अहसणपत्ते हि ॥
अर्थात् — चिरकाल तक कठोर तप, नियम एवं ब्रह्मचर्य आदि से जो पुण्य अर्जन किया है, उसे कलह करके नष्ट मत करो, ऐसा पण्डितजन उपदेश देते हैं । अतः सद्-असद् विवेकशील विद्वान् साधु जराया भी कलह न करे । श्रमणधर्म का सार उपशम हैं । यही इस गाथा का तात्पर्य है ।
मूल पाठ सीओदगपडिदुर्गाछिणो, अपडिण्णस्स लवावसप्पिणो । सामाइयमाहु तस्स जं, जो गिहिमत्तोऽसणं न भुंजती ॥२०॥
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