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________________ सूत्रकृतांग सूत्र लोकसम्पर्क करे और न ही राग-द्वेषादि दोषों को उत्पन्न करने वाले अनुष्ठान करे। साथ ही एकाकी विचरण आदि के साथ शास्त्रकार ने कई शर्ते भी रखी हैं--- 'भिक्खू उवहाणवीरिए वइगुते अज्झत्तसंवुडो।' वह एकाकी विचरण आदि का प्रयोग करने वाला साधु अपनी भिक्षाचर्या न छोड़े, भिक्षा अवश्य करे, किन्तु दूसरों से सेवा या सहायता न ले। उपधानवीर्य हो -यानी तपश्चर्या में अपनी भरसक शक्ति लगाए। वह आहारपानी का गुलाम या शरीर या इन्द्रियों का गुलाम न रहे, यथालाभ सन्तोष की वृत्ति रखे, अधिकांश समय तपश्चर्या में व्यतीत करे । तथा वचनगुप्ति से रहे अर्थात् सम्भव हो तो मौन रखे । अधिक भाषण-सम्भाषण करने से फिर वही संसर्गजनित दोष आ धमकेंगे। भिक्षा आदि के समय बोलने की आवश्यकता हो तो बहुत नपा-तुला संयमयुक्त भाषा में बोले । तथा चौथी शर्त है - वह अध्यात्मसंवृत हो । अर्थात् अपनी आत्मा में ही लीन रहे, आत्मबहिर्भूत विषयों, कषायों, मोहमाया, रागद्वेष आदि विकारों से दूर रहकर आत्मस्वभाव में या आत्मगुणों में अपने को ओतप्रोत कर दे, अथवा अध्यात्मसंवत का अर्थ यह भी है कि मन को बहिम खी होने से रोककर आस्रवों से रोककर संवर में लगाए, मन को गुप्त रखे । एकाकी चर्या के साथ इतनी कड़ी शर्ते पालन करने की हिदायत शास्त्रकार ने दी है, उसे अवश्य ध्यान में रखे । मूल पाठ णो पीहे ण याव पंगुणे, दारं सुन्नघरस्स संजए । पुढे ण उदाहरे वयं, ण समुच्छे, णो संथरे तणं ।।१३॥ संस्कृत छाया नो पिदध्यान्न यावत् प्रगुणयेद् द्वारं शून्यगृहस्य संयतः । पृष्टो नोदाहरेद् वाचं, न सम्मूर्छन् (समुच्छिद्यान्) नो संस्तरेत्तृणम् ॥१३॥ अन्वयार्थ (संजए) साधु (सुन्नघरस्स) सूने घर का (दारं) द्वार (णो पीहे) बन्द न करे, (ण याव पंगुणे) और न ही बार बार हिलाए या खोले । (पुढे) किसी के द्वारा कुछ पूछे जाने पर (ण उदाहरे) बोले नहीं । (ण समुच्छे) अपने शरीर, इन्द्रिय, या मकान आदि में मूचित न हो, अथवा बहुत दिनों से सूना पड़े होने से उसमें अनेक जीवों की उत्पत्ति होने से विराधना की सम्भावना के कारण उसका कूड़ा-कर्कट झाड़बुहार कर निकाले नहीं, प्रमार्जन न करे। (णो संथरे तणं) उस मकान में तृण आदि का संस्तारक (बिछौना) भी न बिछाए। १. बारहवीं और तेरहवीं गाथा जिनकल्पित आचार से सम्बन्धित प्रतीत होती है । सूत्रकृांग के वृत्तिकार श्रीशीलांकाचार्य का भी यही अभिमत है। - सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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