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________________ वैतालीय : द्वितीय अध्ययन-द्वितीय उद्देशक सहायता लेने में निरपेक्ष, तथा भाव से रागद्वषादि दोषों से रहित एकमात्र आत्मभावों या आत्मगुणों में एकाकी स्थित रहकर विचरण करे । अपना स्थान भी स्त्रीपुरुषों की जमघट से दूर ऐसा चुने, जो एकान्त, विजन, विविक्त और शान्त हो। 'अरतिर्जनसंसदि' (जनसमूह में उसे अरति-अरुचि होनी चाहिए) इस सूत्र को लेकर चले। क्योंकि अधिकांश साधक सम्मान एवं प्रतिष्ठा के भूखे होते हैं, उन्हें भीड़-भड़के में आनन्द आता है, जनता का जमघट अधिक हो, वहीं वे अपना आसन जमाते हैं, वहीं डेरा डालते हैं। परन्तु शास्त्रकार इन मब जनसंसर्गों से होने वाले दोषों से (पूर्वगाथा में) सावधान करके उनसे बचने हेतु एकाकी स्थान में निवास की सलाह देते हैं। जनाकीर्ण स्थान में रहने से और भी अनेक दोषों के उत्पन्न होने की सम्भावना है। मानलो, साधु एकान्त स्थान में भी रहा, फिर भी अपना आसन और शयन गृहस्थों के बीच रखेगा, तो उसे अपने कायोत्सर्ग, धर्मध्यान, स्वाध्याय एवं साधना में अनेकों विक्षेप पड़ेंगे, उसे उनके झमेले से अवकाश ही नहीं मिल पाएगा, उक्त साधु को सांसारिक लोग अपने लौकिक स्वार्थ के लिए घेरे रहेंगे। इसी प्रकार अनेक साधुओं के साथ निवास, शयन और आसन रखेगा, तो भी उसकी साधना में कई विघ्न होने की सम्भावना रहेगी। वह निश्चिन्त नहीं रह सकेगा। जब उन साथी साधुओं से वह सहयोग लेगा तो बदले में उसे अनेक प्रति कर्तव्यों का निर्वाह भी करना होगा, उनके सुख-दुःख की चिन्ता भी करनी होगी। फिर भिन्न-भिन्न रुचि वाले साधुओं में विभिन्न महत्त्वाकांक्षाएँ होती हैं, वे उक्त साधु को भी उधर ही झुकाना चाहेंगे, इस प्रकार जिन संसर्गज दोषों से वह बचना चाहता है, बच नहीं सकेगा। इसलिए साधु को एकाकी विचरण, एकान्त एकाकी स्थान, आसन एवं गयन की शास्त्रकार ने सलाह दी। और साथ ही यह भी कहा कि 'एगे समाहिए सिया' वह विचरण, स्थान, शयनासनादि से एकाकी होकर समाधिस्थ हो, समाधि में रहे। समाधि और असमाधि के अनेक कारण दशाश्रुतस्कन्ध में बताए हैं। संक्षेप में असमाधि के शास्त्रोक्त २० स्थानों से बिलकुल दूर रहे, तथा श्रुत-विनय-आचार और तप, इन चार प्रकार की समाधि में स्थित रहे । एकाकी विचरण का उद्देश्य स्वच्छन्द और स्वैराचारी होना नहीं है। यदि एकलबिहारी होकर वह अपने आचरण से शिथिल हो गया, एक संघ या स्थान को छोड़कर अपना नया चौका जमा लिया, वहाँ जनता की भीड़ लगाने लगा तो बिल्ली को निकालकर ऊँट को घुसाने के समान होगा, संसर्गज दोषों से एक जगह बचकर दूसरी जगह उनसे भी बढ़कर स्वेच्छाचार एवं मायाचार तथा नवीन संसर्गजनित दोषों में वह माधक पड़ जाएगा। इसलिए शास्त्रकार का आशय यह है कि एकाकी विचरण, शयन, आसन एवं स्थान का सेवन करने वाला साधु धर्मध्यान में लीन रहे तथा समाधिस्थ रहे, असमाधि के कारणों से सर्वथा दूर रहे। न नया चौका जमाए, न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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