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________________ ३३२ सूत्रकृतांग सूत्र मुदाहरे' का अर्थ 'समतारूपी धर्म का उपदेश करे', करते हैं, परन्तु इसकी अपेक्षा 'समताधर्म का उदाहरण (गमूना) प्रस्तुत करे, यह अर्थ अधिक संगत लगता है। उपदेश तो तभी दिया जा सकता है, जब व्यक्ति स्वयं उसका आचरण कर ले । इसलिए उपदेश की अपेक्षा पहले स्वयं मुनि समताधर्म का आदर्श प्रस्तुत करे, यही अभीष्ट है। उसके पश्चात समता का वातावरण तैयार करने के लिए भले ही वह उपदेश दे। उसके पश्चात स्वयं इन्द्रियों और मन पर कड़ा पहरा रखे । जरा-सी भी इन्द्रिय-मनःसंयम की विराधना न हो, इसकी सावधानी रखे । कोई कुछ भी प्रतिकूल कहे अथवा अनुकूल (प्रशंसात्मक) कहे दोनों ही अवस्थाओ में सम रहे। न तो प्रतिकूल कहने वालों या करने वालों पर क्रोध करे और न अनुकूल कहने या अपनी प्रशंसा करने वालों की बात सुनकर मन में फूले; गर्व न करे। मुनियों के अहिंसाधर्म का यही तकाजा है । यही इस गाथा का तात्पर्य है। अब अगली गाथा में शास्त्रकार साधक को विश्ववन्द्य साधुधर्म में सावधान रहने का उपदेश देते हैं--- मूल पाठ बहुजणणमणंमि संवडो सव्वठेहि गरे अणिस्सिए । हद इव सया अणाविले धम्मं पादुरकासी कासवं ॥७॥ संस्कृत छाया बहुजन-नमने संवृतः सर्वार्थैर्न रोऽनिश्रितः । ह्रद इव सदाऽनाविलो, धर्मं प्रादुरकार्षीत् काश्यपम् ।।७।। अन्वयार्थ (बहुजणणमणंम्मि) अनेक लोगों के द्वारा नमस्करणीय-वन्दनीय, यानी धर्म में (संवुडो) ओतप्रोत या सावधान रहने वाला (गरे) मनुष्य-साधक (सव्वळेहि अणिस्सिए) समस्त पदार्थों या इन्द्रियविषयों में अनिश्रित -- अनासक्त अथवा बेलाग रहकर (हद इव सया अणाविले) सरोवर की तरह सदा स्वच्छ, निर्मल एवं प्रशान्त रहता हुआ (कासवं धम्म) काश्यपगोत्री भगवान् महावीर स्वामी के धर्म को (पादुरकासी) प्रकट करे। भावार्थ बहुत से लोगों के द्वारा नमस्कार करने योग्य धर्म में सदा सावधान रहने वाला साधक (मानव) संसार के समस्त पदार्थों से अनासक्त रहकर सरोवर की तरह स्वच्छ एवं प्रशान्त रहता हुआ काश्यपगोत्री भगवान् महावीर के धर्म को प्रकट करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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