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वैतालीय द्वितीय अध्ययन - द्वितीय उद्देशक
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अभाव ही कर्म के अभाव का कारण है । इसलिए क्या मद और क्या निन्दा इन सभी कषायोत्तेजक एवं तत्पश्चात् कर्मबन्धक वृत्तियों से साधक को बचना चाहिए । इस सम्बन्ध में निर्मुक्तिकार दो गाथाओं द्वारा कहते हैं-
तवसंजमणाणेसुवि, जइ माणो वज्जिओ महेसीहि । अत्तसमुक्कfree ft पुण होला उ अन्नेसि ? ||४३|| जइ ताव निज्जरमओ पडिसिद्धो अट्ठमाणमहणेहि । अविसेस मयट्ठाणा परिहरियव्वा पयत्तणं 118811
अर्थात् — अपने उत्कर्ष को बढ़ानेवाले तप, संयम और ज्ञान के मान का भी जब महर्षियों ने त्याग कर दिया है, तब दूसरों की निन्दा छोड़ने की बात ही क्या है ? उसको तो वे त्याग ही देते हैं । मोक्षप्राप्ति का एकमात्र साधन निर्जरा है, उसका मद भी अरिहन्तों ने वर्जित किया है, फिर शेष जाति आदि मदों की तो बात ही क्या है ? उनको तो प्रयत्नपूर्वक छोड़ ही देना चाहिए ।
अतः ज्ञपरिज्ञा से मद एवं निन्दा का स्वरूप जानकर, प्रत्याख्यानपरिज्ञा से इनका त्याग ही साधु के लिए श्रेयस्कर है ।
इसी बात को दूसरे शब्दों में फिर अगली गाथा में दोहराते हैं
मूल पाठ
जो परिभवई परं जणं संसारे परिवत्तई महंं ।
अदु इंखिणिया उपाविया, इति संखाय मुणी ण मज्जई ॥२॥
संस्कृत छाया
यः परिभवति परं जनं, संसारे परिवर्तते महत्
1
अथ क्षणिका तु पापिका, इति संख्याय मुनिर्न माद्यति ||२||
अन्वयार्थ
( जो ) जो पुरुष ( परं जणं) दूसरे व्यक्ति का (परिभवई ) तिरस्कार करता है, ( संसारे) वह संसार में (महं) चिरकाल तक ( परिवत्तई) परिभ्रमण करता है । ( अदु इंखिणिया उ ) अथवा या क्योंकि परनिन्दा ( पाविया) पापोत्पादक है, (इति) यह ( संखाय ) जानकर (मुणी) मुनिवर ( ण मज्जई) मद नहीं करता ।
भावार्थ
जो साधक दूसरे व्यक्ति का तिरस्कार करता है, प्रत्यक्ष या परोक्षरूप से निन्दा करता है, वह दीर्घकाल तक जन्ममरण के चक्ररूप संसार में
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