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________________ वैतालीय द्वितीय अध्ययन - द्वितीय उद्देशक ३२३ अभाव ही कर्म के अभाव का कारण है । इसलिए क्या मद और क्या निन्दा इन सभी कषायोत्तेजक एवं तत्पश्चात् कर्मबन्धक वृत्तियों से साधक को बचना चाहिए । इस सम्बन्ध में निर्मुक्तिकार दो गाथाओं द्वारा कहते हैं- तवसंजमणाणेसुवि, जइ माणो वज्जिओ महेसीहि । अत्तसमुक्कfree ft पुण होला उ अन्नेसि ? ||४३|| जइ ताव निज्जरमओ पडिसिद्धो अट्ठमाणमहणेहि । अविसेस मयट्ठाणा परिहरियव्वा पयत्तणं 118811 अर्थात् — अपने उत्कर्ष को बढ़ानेवाले तप, संयम और ज्ञान के मान का भी जब महर्षियों ने त्याग कर दिया है, तब दूसरों की निन्दा छोड़ने की बात ही क्या है ? उसको तो वे त्याग ही देते हैं । मोक्षप्राप्ति का एकमात्र साधन निर्जरा है, उसका मद भी अरिहन्तों ने वर्जित किया है, फिर शेष जाति आदि मदों की तो बात ही क्या है ? उनको तो प्रयत्नपूर्वक छोड़ ही देना चाहिए । अतः ज्ञपरिज्ञा से मद एवं निन्दा का स्वरूप जानकर, प्रत्याख्यानपरिज्ञा से इनका त्याग ही साधु के लिए श्रेयस्कर है । इसी बात को दूसरे शब्दों में फिर अगली गाथा में दोहराते हैं मूल पाठ जो परिभवई परं जणं संसारे परिवत्तई महंं । अदु इंखिणिया उपाविया, इति संखाय मुणी ण मज्जई ॥२॥ संस्कृत छाया यः परिभवति परं जनं, संसारे परिवर्तते महत् 1 अथ क्षणिका तु पापिका, इति संख्याय मुनिर्न माद्यति ||२|| अन्वयार्थ ( जो ) जो पुरुष ( परं जणं) दूसरे व्यक्ति का (परिभवई ) तिरस्कार करता है, ( संसारे) वह संसार में (महं) चिरकाल तक ( परिवत्तई) परिभ्रमण करता है । ( अदु इंखिणिया उ ) अथवा या क्योंकि परनिन्दा ( पाविया) पापोत्पादक है, (इति) यह ( संखाय ) जानकर (मुणी) मुनिवर ( ण मज्जई) मद नहीं करता । भावार्थ जो साधक दूसरे व्यक्ति का तिरस्कार करता है, प्रत्यक्ष या परोक्षरूप से निन्दा करता है, वह दीर्घकाल तक जन्ममरण के चक्ररूप संसार में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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