________________
का खण्डन, ईश्वरकृतवादियों का कथन युक्तिविरुद्ध, स्वभाव, नियति आदि कथंचित् जगत के कारण, दुखोत्पत्ति से अनभिज्ञ : दुख निरोध से अज्ञात, निष्पाप शुद्ध मुक्त आत्मा पुनः कर्म के कटघरे में, मुनि की निर्मल निष्पाप आत्मा पुनः मलिन, अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग !, अपने-अपने अनुष्ठान से ही मुक्ति : एक विश्लेषण, स्वमतानुसारी सिद्धि में आसक्त सिद्धिवादी, मताग्रही
सिद्धिवादियों कः अन्धकारपूर्ण भविष्य । चतुर्थ उद्देशक : स्व-पर-समय वक्तव्यता
२४६-२८० पूर्व-संयोगी भी सावद्योपदेशक होने से अशरण्य हैं, ऐसे वेषधारी से अनासक्त व असंसर्ग होकर रहे, आरम्भ-परिग्रहवादियों का मोक्ष, अनारंभी-अपरिग्रही की ही शरण लो, भिक्षाजीवी साधु को आहार के सम्बन्ध में कर्तव्यबोध, लोकवाद : कितना हेय, शेय, उपादेय ?, लोकवाद की विचित्र मान्यताएँ, तीर्थकर ईश्वर का अवतार : कितना ज्ञाता, कितना नहीं ? लोकवाद का खण्डन : त्रसस्थावर पर्याय-परिवर्तन, सभी प्राणी अहिंस्य हैं : क्यों और कैसे ?, ज्ञानी पुरुष के लिए न्याय्य : अहिंसाचरण, कर्मबन्धनों से आत्म-रक्षा के लिए चारित्र शुद्धि, समितियुक्त मुनि के लिए कषाय का परित्याग आवश्यक, साधक मोक्ष-प्राप्ति तक संयम में डटा रहे।
द्वितीय अध्ययन : वैतालीय : २८१-३६६ प्रथम उद्देशक : अनित्यता-सम्बोध
२८१-३२० वैतालीय नाम क्यों ?, द्वितीय अध्ययन की पृष्ठभूमि, उद्देशकों का परिचय, दुर्लभबोधि प्राप्त करने का उपदेश, मत्यु किसी को नहीं छोड़ती, माता-पिता आदि का मोह : संसार-परिभ्रमण का कारण, मोहान्ध को सुगति सुलभ कहाँ ?, महापुरुष द्वारा चेतावनी, अपनेअपने कर्म : अपने-अपने फल, सभी स्थान अनित्य हैं, कामों एवं परिचितों में आसक्त जीवों की दशा, दाम्भिक साधकों की दशा, मोक्षमार्गी या संसारमार्गी ? कृश और नग्न : फिर भी संसारसंलग्न, पापकर्मों से निवृत्ति का उपदेश, उपयोगपूर्वक संयम पथ पर चलो, वीर कौन ? परीषह आने पर वीर पुरुष का चिन्तन, परीषह और उपसर्ग के समय मुनि का धर्म, अहिंसाधर्म के परिपालन का फल, अनुकूल उपसर्ग : मुनि की दृढ़ता, परिपक्व एवं सावधान साधु की पहिचान, भय और प्रलोभन में भी अविचल
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org