SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 338
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वैतालीय : द्वितीय अध्ययन–प्रथम उद्देशक २६३ (नरसेठिमाहणा) मनुष्य, नगर के सेठ, ब्राह्मण, (ते वि) वे सभी (दुक्खिया) दुःखित होकर (ठाणा) अपने-अपने स्थानों को (चयंति) छोड़ देते हैं । भावार्थ देवता, गन्धर्व, राक्षस, असुर, भूमिचर, रेंगकर चलने वाले तिर्यञ्च, चक्रवर्ती या राजा, मनुष्य, नगर के श्रेष्ठ पुरुष और ब्राह्मण ये सभी दुःखी होकर अपने-अपने स्थानों को छोड़ते हैं। अर्थात् वे अपने स्थान का त्याग करते समय अवश्य दुःखी होते हैं, परन्तु स्थान का त्याग तो उन्हें अवश (बरबस) करना पड़ता है। व्याख्या सभी स्थान अनित्य हैं मनुष्य जिस स्थिति में, जिस योनि में, जिस पद पर होता है, वह प्रायः अपने आपको वहाँ स्थायी समझ लेता है । वह सोचता है कि यह स्थिति सदैव बनी रहेगी, मैं सदा इसी पद पर रहूँगा, इसी गति में ही, इसी योनि में ही मेरा निवास रहेगा और कदाचित् यह शरीर छूट भी गया तो पुनः इसी गति और इसी योनि में मेरा जन्म होगा। यह कितनी बड़ी भ्रान्ति है मानव-मस्तिष्क की ? अगर मनुष्य एक ही स्थिति में सदैव बना रहता है तो उसे साधना करने की क्या आवश्यकता रहती ? यह गलत सिद्धान्त है। इसे ही बताने के लिए शास्त्रकार तमाम स्थानों की अनित्यता बताते हैं -- 'ठाणा ते वि चयंति दुक्खिया।' इसका आशय यह है कि क्या देव, क्या दानव और क्या मानव, क्या पशु-पक्षी और क्या जलचर आदि प्राणी सभी को मृत्यु एक दिन अपना ग्रास बनाती है। जब मृत्यु आती है, तब मोहग्रस्त अज्ञानी जीव, जो उस स्थान को स्थायी समझे बैठा था, एकदम चौंकता है, सारी मोहमाया उसे आकर घेर लेती है, उसकी आँखों के आगे अँधेरा छा जाता है, उसे अपना यह स्थान छोड़ते हुए-विशेषतः अपने शरीर, अपने परिजन एवं धन, धरा, धाम को छोड़ते हुए अत्यन्त दुःख होता है, किन्तु बरबस भारी मन से दुःखित होते हुए उसे अपने शरीर और शरीर से सम्बन्धित ममत्वबद्ध समस्त जड़-चेतन पदार्थों को छोड़ना पड़ता है। यहाँ शास्त्रकार का यह तात्पर्य ध्वनित होता है कि सुज्ञ मानव को अपने इस स्थान, शरीर, धन, धाम तथा परिवार आदि सबको अनित्य एवं एक दिन त्याज्य समझकर मन से इनके प्रति पहले से ही ममताआसक्ति छोड़ देनी चाहिए, ताकि उन्हें छोड़ते समय किसी प्रकार का दुःख न हो। शास्त्रकार ने इस गाथा में कुछ स्थानों का नामोल्लेख कर दिया है, किन्तु उपलक्षण से देवगति के सभी प्रकार के देव, तिर्यञ्चगति के सभी प्रकार के तिर्यञ्च, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy