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सूत्रकृतांग सूत्र की आदि में थी नहीं । कर्म को कारण मानने पर विष्णु कर्मविशिष्ट सिद्ध होगा। इस प्रकार के पूर्वोक्त दूषण उपस्थित होंगे। यदि दयालुता से प्रेरित होकर विष्णु सृष्टि बनाते हैं, तब तो यह कथन भी उपहास का विषय होगा। सृष्टि से पहले जब कोई प्राणी था ही नहीं, तब दया किस पर की गई ? मान लो, विष्णु दयालु हैं, इसलिए उन्होंने प्राणियों को पैदा किया, तब तो उन्हें दया करके सभी प्राणियों को सुखी, परस्पर सहयोगी और साधनसम्पन्न बनाना चाहिए था? उन्होंने दुःखी, कर्मबन्धनग्रस्त तथा देव और दानव, नकुल और सर्प, गरुड़ और नाग आदि परस्पर शात्र-जीवों को क्यों बनाया ? इसलिए विष्णुकृत लोक की कल्पना सत्य से कोसों दूर है।
तत्तं ते ण विजाणंति--प्रश्न होता है, पूर्वोक्त मतबादी इस प्रकार की परस्पर विरोधी बातें जगत् की रचना के सम्बन्ध में क्यों करते हैं ? इसके उत्तर में शास्त्रकार कहते हैं- 'तत्त ते ण विजाणंति ।' तात्पर्य यह है कि वे मतवादी लोग लोक के वास्तविक स्वरूप को जानते ही नहीं । 'बाबावाक्यं प्रमाणम्' के अनुसार परम्परा से उनके पूर्वजों ने जो कुछ कह दिया, उसी को वे आँखें मूदकर प्रमाण मानकर चलते हैं, उससे जरा-सी भी इधर-उधर की बात न सुनना चाहते हैं और न ग्रहण करना चाहते हैं। जो अपनी माना हुई मतपरम्परा से मिल गया उसी को सत्य मान लिया । इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं कि वे पूर्वोक्त मत वादी जो भी मन में आया या मतपरम्परा से मिला उसी की मिथ्याप्ररूपणा करते रहते हैं। लोकरचना के सम्बन्ध में भी वे असत्यप्ररूपणा करते हैं ।
‘णदि.णासी कयाइ वि'- पूर्वोक्त मतवादी लोक को किसी न किसी का कार्य मानते हैं, इस कारण वे लोक को अनित्य, विनाशी एवं अशाश्वत मानते हैं । किन्तु लोक विनाशी या अशाश्वत नहीं है । वस्तुतः देखा जाय तो यह लोक द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से नित्य, शाश्वत और अविनाशी है । प्रवाहरूप में यह लोक अनादिअनन्त है । कदाचित् छठे आरे के अन्त में अधिकांश वस्तुएं नष्ट हो जाएँगी, तो भी जड़ और चेतन से युक्त वस्तुएँ पूर्णरूप से नष्ट नहीं होगी। जैसे अन्यमतवादी प्रलयकाल मानकर उस काल में जगत् का सर्वथा विनाश मानते हैं, वैसा जैनदर्शन नहीं मानता । यह पर्यायरूप से यानी जगत् की प्रत्येक वस्तु के पर्यायों ( रूपों) में परिवर्तन या क्षय मानने से क्षणक्षयी या अनित्य है। उत्पाद व्यय-ध्रौव्य (उत्पत्ति, स्थिति, ध्वंस) तीनों से युक्त होने के कारण यह लोक षट् द्रव्यस्वरूप है । वे ६ द्रव्य ये हैं- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय और काल । दूसरे शब्दों में कहें तो यह लोक षड्द्रव्यमय है। अनादिकालिक
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