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समय : प्रथम अध्ययन-तृतीय उद्देशक
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अनित्य ही सिद्ध होगा। यदि ईश्वर का शरीर अनित्य है तो प्रश्न होता है कि वह किसके द्वारा बनाया हुआ है ? यदि कहें कि ईश्वर ने अपने शरीर को स्वयं ही बनाया है, तब तो उसके पहले भी ईश्वर के शरीर को मानना पड़ेगा। इस प्रकार उत्तरोत्तर आगे-आगे के शरीर को पैदा करने के लिए उसके पूर्व-पूर्व के शरीर मानने पड़ेंगे। इसी तरह लगातार शरीर मानते जाने पर अनवस्था दोष उपस्थित होगा। ऐसी दशा में कार्य की सिद्धि नहीं होगी।
____ 'ईश्वर जीवों को अपने-अपने शुभाशुभ कर्मानुसार फल भुगताता है, वही अज्ञ जीव को फल भोगने के लिए स्वर्ग या नरक भेजता है, यह कथन भी असत्य सिद्ध होता है, क्योंकि पहले आप यह बतायें कि ईश्वर जब सृष्टिरचना करता है, तब जीव कर्मरहित होते हैं या कर्मसहित ? यदि कहें कि वे कर्मसहित थे तो उन कर्मों को किसने बनाया? यदि कहें कि कर्म तो उन-उन आत्माओं ने स्वयं ही बनाएँ हैं तो आपका कार्यरूप हेतु दूषित हो जाता है। आपका मानना है कि जितने भी कार्य होते हैं, वे सब ईश्वर के किये हुए होते हैं। यदि कहें कि वे सभी कर्म भी ईश्वर ने ही बनाए हैं, तब तो ईश्वर की दयालुता पर बहुत बड़ा आक्षेप यह आता है कि ईश्वर ने उन शुद्ध और सुखी आत्माओं को व्यर्थ ही कर्मों से लिपटाकर अशुद्ध और दुःखी क्यों बना दिया ? क्या यही उसकी दयालुता है ?
यदि कहें कि ईश्वर ने सृष्टि की आदि में सुमार्ग पर गमन और कुमार्ग से बचने का उपदेश देकर जीवों को कर्म करने की स्वतन्त्रता दी, परन्तु वह ईश्वर सर्वज्ञ और दयालु परमपिता होते हुए भी अपने पुत्र-जीव को कुमार्ग पर जाते हुए रोकता क्यों नहीं ? परमदयालु ईश्वर पिता सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान होते हुए भी अपने पुत्रों को अन्यायपथ पर जाते पर देखकर भी आँखें कैसे मूद सकता है ? अतः नैयायिकों का यह कथन भी सत्य से कोसों दूर है।
अतः निरंजन, निराकार, निर्लेप, निर्विकार ईश्वर को कर्मफल भुगवाने के पचड़े में या जगत् की रचना करने के पचड़े में डालने से उस पर पक्षपात, दयाहीनता, अन्याय, अविवेक आदि अनेक आक्षेप आते हैं। इन सब युक्तियों से ईश्वरकर्तृत्ववाद की असत्यता सिद्ध हो जाती है।
प्रधानकृत लोक : असत्य मान्यता पहले सांख्यदर्शन का पूर्वपक्ष प्रस्तुत किया गया था कि यह लोक प्रधानादिकृत है, इत्यादि कथन भी सर्वथा असंगत है। क्योंकि प्रश्न होता है वह प्रधान (प्रकृति) मूर्त है या अमूर्त है ? यदि वह अमूर्त है तो उससे मूर्तिमान समुद्र पर्वत आदि उत्पन्न नहीं हो सकते। क्योंकि अमूर्त आकाश से किसी भी वस्तु की उत्पत्ति नहीं देखी जाती। इसलिए मूर्त और अमूर्त का परस्पर कार्यकारण
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