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________________ समय : प्रथम अध्ययन-तृतीय उद्देशक २१६ सो पकड़ ली उस पर तटस्थ दृष्टि से विचार नहीं करते, न करना चाहते हैं । बस, वे अपनी-अपनी युक्तियों के बल से कहते हैं-- हमारे द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त ही सत्य है, दूसरा मत सत्य नहीं है। वास्तव में पूर्वोक्त अन्यदर्शनी अपनी-अपनी स्वच्छन्द कल्पना से अपनी-अपनी युक्तियों द्वारा अपनी-अपनी बातें सिद्ध करते हैं। हम यहाँ उनसे चुनौती देकर पूछते हैं कि क्या वास्तव में जगत् वैसा ही या उनके द्वारा ही रचित है, जैसा वे मानते हैं ? आइए, हम उनमें से प्रत्येक मत की कुछ समीक्षा कर लें--- देवोप्तवादियों का मिथ्यात्व -- देवोप्तवादी इस लोक को देवकृत बताते हैं, यह सर्वथा युक्तिविरुद्ध है। क्योंकि यह लोक देवकृत है, इस विषय में कोई भी प्रबल प्रमाण नहीं दिया गया है। जो बात प्रमाणविरुद्ध केवल कल्पना के सहारे कही जाती है, विद्वानों के मन को समाहित या सन्तुष्ट नहीं कर सकती। हम पूछते हैं कि जिस देव ने इस लोक को बनाया है, वह देव स्वयं उत्पन्न होकर इस लोक को बनाता है अथवा उत्पन्न हुए बिना ही बनाता है ? वह उत्पन्न हुए बिना तो इस लोक को बना नहीं सकता, क्योकि जो उत्पन्न ही नहीं हुआ, वह गधे के सींग की तरह स्वयं विद्यमान नहीं है, तब दूसरों को कैसे उत्पन्न कर सकता है ? अगर वह देव उत्पन्न होकर इस लोक को बनाता है, तो क्या वह अपने आप ही उत्पन्न होता है, अथवा किसी दूसरे के द्वारा उत्पन्न किया जाता है ? यदि कहो कि वह अपने आप ही उत्पन्न होता है तो इस लोक को ही अपने आप ही उत्पन्न क्यों नहीं मान लेते ? यदि कहते हो कि वह देव किसी दूसरे देव से उत्पन्न होकर इस लोक को बनाता है, तो वह दूसरा देवता भी किसी तीसरे देवता द्वारा उत्पन्न होगा और वह तीसरा देवता भी किसी चौथे देवता से उत्पन्न होगा, इस प्रकार अनवस्था दोष आएगा। देवकृत लोक वाली बात किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं हो सकेगी। यदि कहो कि वह देव अनादि होने के कारण उत्पन्न नहीं होता तो इसी तरह इस लोक को ही अनादि क्यों नहीं मान लेते ? तथा जिस देव ने इस जगत् को बनाया है, वह नित्य है या अनित्य ? यदि नित्य है तो अर्थ क्रिया के साथ विरोध होने के कारण वह न तो एकसाथ क्रियाओं का कर्ता हो सकता है और न ही क्रमश: कर्ता हो सकता है। क्योंकि जो पदार्थ नित्य है, उसका स्वभाव नहीं बदलता है, और स्वभाव बदले बिना पदार्थ से क्रियाएँ नहीं हो सकती हैं। अत: सदा एक से स्वभाव वाला देव न तो एकसाथ क्रियाओं को कर सकता है, और न ही क्रमश: कर सकता है। यदि वह देव अनित्य है तो उत्पत्ति के पश्चात स्वयं विनाशी होने के कारण वह अपनी रक्षा भी स्वयं करने में समर्थ नहीं है तो फिर वह किगी दूसरे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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