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________________ समय : प्रथम अध्ययन-तृतीय उद्देशक २१७ व्याख्या अण्डे से रचित ब्रह्माण्ड की कहानी 'अंडकडे लोए'- इस गाथा में शास्त्रकार ने उस युग की एक विचित्र मान्यता जगत् की रचना के सम्बन्ध प्रस्तुत की है । वह इस प्रकार है यह सम्पूर्ण चराचर लोक अण्डे से उत्पन्न हुआ है। ब्रह्माण्ड पुराण में कहा है कि “पहले जगत् पंचमहाभूतों (पृथ्वी आदि) से रहित था। वह एक गहन महासमुद्र रूप था। उसमें केवल जल ही जल था । उसमें से एक विशाल अण्डा प्रादुर्भूत हुआ। चिरकाल तक वह अण्डा लहरों में इधर-उधर बहता रहा। फिर वह फूटा। फूटने पर उसके दो टुकड़े हो गये। एक टुकड़े से भूमि और दूसरे से आकाश बना। बाद में उसमें से सुर (देव), असुर (दानव), मानव और चौपाये, पशु-पक्षी आदि सम्पूर्ण जगत् पैदा हुआ है। इसी तरह जल, तेज, वायु, समुद्र, नदी और पर्वत आदि सभी की उत्पत्ति हुई। इस प्रकार अण्डे से बना हुआ ही यह सारा ब्रह्माण्ड लोक) है। ___'माहणा समणा एगे आहे'- इस प्रकार की प्ररूपणा कई माहन (ब्राह्मणों) तथा विदण्डी आदि श्रमण एवं कुछ पौराणिक लोग करते हैं, सब नहीं। यह बताने के लिए इन शब्दों का प्रयोग शास्त्रकार ने किया है। 'असो तत्तमकासी च'---फिर उन्होंने यह कहा कि ---- आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् । अप्रतय॑मविज्ञेयं, प्रसुप्तमिव सर्वतः ॥ सृष्टि के पहले यह जगत् अन्धकाररूप, अज्ञात, अविलक्षण, तर्क का अविषय तथा अज्ञेय था, मानों चारों तरफ से सोया हुआ-सा था । इत्यादि क्रम से ब्रह्मा ने अण्डा आदि क्रम से सम्पूर्ण जगत् को बनाया। इस क्रम का वर्णन पाँचवीं गाथा में 'बंभउत्त ति' के प्रसंग में हम कर चुके हैं। 'अयाणंता मुसं वदे'--पूर्वोक्त दोनों मत (अण्डे से जगत् की उत्पत्ति तथा ब्रह्मा से ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति) कितने हास्यास्पद हैं। कितनी युक्तिहीन अनर्गल कल्पना है ? यह शास्त्रकार स्वयं अगली गाथा में बतायेगे । लोक की उत्पत्ति के विषय में ऐसी ऊटपटांग कल्पना, वे ही लोग कर सकते हैं, जो वस्तु-स्वरूप से अनभिज्ञ एवं तत्त्वज्ञान से शून्य हों। इसलिए ऐसी ऊटपटांग कल्पना करके वे झूठमूठ ही अण्डे से या ब्रह्मा से जगत् का निर्माण बताते हैं। वस्तुतत्त्व तो कुछ और ही है, परन्तु वे इसे जाने बिना ही या तत्त्वज्ञानियों से जिज्ञासापूर्वक समझे बिना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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