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समय : प्रथम अध्ययन-तृतीय उद्देशक
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के रूप में था। उसमें स्थावर, जंगम, देव, मानव, दानव, उरग, भुजंग आदि कोई भी न था। ये सब के सब प्राणी नष्ट हो गये थे। पृथ्वी आदि महाभूत तथा पर्वत, वृक्ष आदि से वह संसार रहित था। वह केवल गह्वर (एक बड़े गड्ढे) के रूप में था। वहाँ मन से भी अचिन्त्य विभु विष्णु सोये हुए तपस्या कर रहे थे। वहाँ सोये हुए विष्णु की नाभि से एक कमल निकला, जो तरुण सूर्यबिम्ब के समान तेजस्वी, मनोहर और सोने की कणिका वाला था। उस कमल में से दण्ड और यज्ञोपवीत से युक्त भगवान् ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जिन्होंने ८ जगदम्बाएँ (जगत् की माताएँ) बनाई --दिति, अदिति, मनु, विनता, कद्र , सुलसा, सुरभि और इला। दिति ने दैत्यों को, अदिति ने देवगणों को, मनु ने मनुष्यों को, विनता ने सभी प्रकार के पक्षियों को, कद्र ने सभी प्रकार के सरीसृपों (साँपों) को, सुलसा ने नाग जातियों को, सुरभि ने चौपायों को और इला ने समस्त बीजों को उत्पन्न किया ।
इसी बात को शास्त्रकार ने संक्षेप में बता दिया--बंभ उत्तेति आवरे । इसका आशय भी ऊपर स्पष्ट कर दिया है। 'बंध उत्त' शब्द के भी 'देवउत्ते' की तरह संस्कृत में जो तीन रूप होते हैं, उनकी व्याख्या भी पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए। विशेष बात यही है कि देव की जगह यहाँ ब्रह्मा शब्द है और शेष सब अर्थ पूर्ववत् है।
अब अगली गाथा में शास्त्रकार जगत् को ईश्वरकृत एवं प्रकृतिकृत मानने वालों का मत अभिव्यक्त करते हैं
मूल पाठ ईसरेण कडे लोए पहाणाइ तहावरे । जीवाजीवसमाउत्त सुहदुक्खसमन्निए ॥६॥
संस्कृत छाया ईश्वरेण कृतो लोकः, प्रधानादिना तथाऽपरे । जीवाजीवसमायुक्तः सुखदुःखसमन्वितः ।।६।।
अन्वयार्थ (जीवाजीवसमाउत्ते) जीव और अजीव से संकुल, (सुहदुक्खसमन्निए) सुख और दुःख से समन्वित--युक्त (लोए) यह लोक (ईसरेण) ईश्वर के द्वारा (कडे) कृत ----रचित है, ऐसा कई कहते हैं । (तहावरे) तथा दूसरे कहते हैं कि यह लोक (पहाणाइ) प्रधान (प्रकृति) आदि के द्वारा कृत है।
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