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________________ समय : प्रथम अध्ययन - द्वितीय उद्देशक १८६ काल में मांस खा लेता है तो वह भी कर्मबन्ध से लिप्त नहीं होता । यहाँ 'य' (च) शब्द 'अपि ' समुच्चय अर्थ में है | गाथा का निष्कर्ष यह है कि चाहे गृहस्थ हो या साधु, जिसका आशय शुद्ध है, अन्तःकरण राग-द्व ेषरहित है, वह इस प्रकार का प्राणिघात होने पर भी पाप कर्म से नहीं लिपटता, क्योंकि पापकर्म तभी चिपकता है, जब भावों में अशुद्धि हो, दुष्ट अध्यवसाय हो । अब अगली गाथा में शास्त्रकार इस गलत मान्यता का निराकरण करते हैं मूल पाठ मणसा जे पउस्संति, चित्त तेसि ण विज्जइ । अणवज्ज मतहं तेसि, ण ते संवुडचारिणो संस्कृत छाया मनसा ये प्रद्विषन्ति, चित्तं तेषां न विद्यते । अनवद्यमतथ्यं तेषां न ते संवृतचारिणः ॥ २६ ॥ अन्वयार्थ ॥२६॥ (जे) जो लोग ( मनसा) मन से (पउस्संति) किसी प्राणी पर द्वेष करते हैं, (स) उनका (चित्त) चित्त (ण विज्जइ) विशुद्धियुक्त नहीं है । ( तेसि ) तथा उनके ( अणवज्ज मतहं) पापकर्म का उपचय नहीं होता, यह कथन भी मिथ्या है । ( तेण वुडचारिणो ) तथा वे संवर (पापों के स्रोत का निरोध ) के साथ चलने वाली नहीं भावार्थ जो मन से प्राणियों पर द्वेष करते हैं, उनका चित्त निर्मल नहीं होता । तथा मन से द्व ेष करने पर भी पापकर्म का उपचय नहीं होता, यह कथन भी असत्य है । ऐसे लोग पापों के निरोधरूप संवर को लेकर प्रवृत्ति करने वाले नहीं हैं । व्याख्या मन से द्वेष करने पर भी पापबन्ध नहीं : घोर असत्य पूर्वोक्त गाथाओं में बौद्धों द्वारा मान्य, भावविशुद्धि होने पर हिंसा आदि से पापकर्मबन्ध नहीं होता, अब बौद्धों के इस मत को दूषित सिद्ध करते हैं । आशय यह है कि जो पुरुष किसी भी निमित्त से किसी प्राणी पर मन से द्वेष करता है, उसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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