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समय : प्रथम अध्ययन - द्वितीय उद्देशक
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काल में मांस खा लेता है तो वह भी कर्मबन्ध से लिप्त नहीं होता । यहाँ 'य' (च) शब्द 'अपि ' समुच्चय अर्थ में है | गाथा का निष्कर्ष यह है कि चाहे गृहस्थ हो या साधु, जिसका आशय शुद्ध है, अन्तःकरण राग-द्व ेषरहित है, वह इस प्रकार का प्राणिघात होने पर भी पाप कर्म से नहीं लिपटता, क्योंकि पापकर्म तभी चिपकता है, जब भावों में अशुद्धि हो, दुष्ट अध्यवसाय हो ।
अब अगली गाथा में शास्त्रकार इस गलत मान्यता का निराकरण करते हैं
मूल पाठ
मणसा जे पउस्संति, चित्त तेसि ण विज्जइ । अणवज्ज मतहं तेसि, ण ते संवुडचारिणो
संस्कृत छाया
मनसा ये प्रद्विषन्ति, चित्तं तेषां न विद्यते । अनवद्यमतथ्यं तेषां न ते संवृतचारिणः ॥ २६ ॥
अन्वयार्थ
॥२६॥
(जे) जो लोग ( मनसा) मन से (पउस्संति) किसी प्राणी पर द्वेष करते हैं, (स) उनका (चित्त) चित्त (ण विज्जइ) विशुद्धियुक्त नहीं है । ( तेसि ) तथा उनके ( अणवज्ज मतहं) पापकर्म का उपचय नहीं होता, यह कथन भी मिथ्या है । ( तेण वुडचारिणो ) तथा वे संवर (पापों के स्रोत का निरोध ) के साथ चलने वाली नहीं
भावार्थ
जो मन से प्राणियों पर द्वेष करते हैं, उनका चित्त निर्मल नहीं होता । तथा मन से द्व ेष करने पर भी पापकर्म का उपचय नहीं होता, यह कथन भी असत्य है । ऐसे लोग पापों के निरोधरूप संवर को लेकर प्रवृत्ति करने वाले नहीं हैं ।
व्याख्या
मन से द्वेष करने पर भी पापबन्ध नहीं : घोर असत्य
पूर्वोक्त गाथाओं में बौद्धों द्वारा मान्य, भावविशुद्धि होने पर हिंसा आदि से पापकर्मबन्ध नहीं होता, अब बौद्धों के इस मत को दूषित सिद्ध करते हैं । आशय यह है कि जो पुरुष किसी भी निमित्त से किसी प्राणी पर मन से द्वेष करता है, उसका
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