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सूत्रकृतांग सूत्र लोक में (जे) जो (पाणा) प्राणी हैं, (वि) उन्हें भी (ते) वे (किंचण) कुछ (न जाणंति) नहीं जानते।
भावार्थ इस जगत् में कई ब्राह्मण और श्रमण ऐसे भी हैं कि वे सभी अपनाअपना ज्ञान बघारते रहते हैं, अपने ज्ञान का वे प्रदर्शन करते रहते हैं । किन्तु समस्त लोक में जितने प्राणी हैं, उन्हें भी वे कुछ नहीं जानते।
व्याख्या ___ ज्ञान के प्रदर्शकों में जीवों के ज्ञान का अभाव-'थोथा चना बाजे घना' इस लोकोक्ति के अनुसार अज्ञानवादियों के पास सम्यग्ज्ञान तो होता नहीं, इधर-उधर का रटारटाया मतासक्तिपूर्ण थोड़ा-बहुत ज्ञान होता है, उसे ही वे बढ़ा-चढ़ाकर लच्छेदार भाषा में भोले-भाले लोगों के सामने बघारते रहते हैं। यह अज्ञान का प्रदर्शन सम्यक्ज्ञान के नाम पर सम्यक्ज्ञान का मुलम्मा चढ़ाकर किया जाता है, इसे ही शास्त्रकार कहते हैं-सव्वे नाणं सयं वए ।
माहणा समणा एगे-इस पंक्ति का अभिप्राय यह है कि सभी ब्राह्मण-श्रमण तो नहीं, किन्तु कई ब्राह्मण-श्रमण ऐसे हैं, जो अपने-अपने माने हुए शास्त्रों में हेयोपादेय के बोधक ज्ञान का निरूपण करते हैं, कहते हैं----इस प्रकार से इस अनुष्ठान के करने से स्वर्ग आदि की प्राप्ति होगी, इसके करने से मोक्ष मिलेगा ! परन्तु उनका वह ज्ञान जिसके द्वारा पदार्थ जाना जाय', इस व्युत्पत्त्यर्थ के अनुसार ज्ञान भले ही हो, सम्यज्ञान नहीं है, अपितु उनका ज्ञान परस्पर विरोधी होने के कारण सम्यक्ज्ञान-सच्चा ज्ञान नहीं, मिथ्याज्ञान है। इस प्रकार ज्ञान बघारने की अपेक्षा अज्ञान ही अच्छा । वे परस्पर विरोधी और एकान्त प्ररूपणा करते हैं, अतः परस्पर विरोधी प्ररूपणा करने से प्रतीत होता है, कि उन्हें वास्तविक ज्ञान नहीं है, प्रत्युत वे सब अज्ञानान्धकार में भटक रहे हैं।
'सव्वलोगेऽवि . . . . . . न ते जाणंति किंचण'-एक तरफ वे कहते हैं'मा हिस्यात् सर्वभूतानि' (समस्त प्राणियो की हिंसा मत करो) और दूसरी ओर वे ही कहने लगते हैं - 'याज्ञिकी हिंसा हिंसा न भवति', या 'यज्ञार्थं पशवः सृष्टा' (यज्ञ में पशुवध से होने वाली हिंसा हिंसा नहीं है । ईश्वर ने यज्ञ के लिये पशु बनाये हैं।) इस प्रकार परस्पर विरोधी वचन कहने वाले क्या सम्यगज्ञानसम्पन्न कहे जा सकते
१. ज्ञायते परिच्छिद्यते पदार्थोऽनेनेति ज्ञानम् ।
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