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प्रथम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक
परसमय-वक्तव्यताधिकार
प्रथम उद्देशक में स्वसमय और परसमय का निरूपण किया गया। इसी प्रकार दूसरे उद्देशक में भी स्वसमय-परसमय का वर्णन किया जा रहा है। वैसे तो पहला अध्ययन ही स्वसमय-परसमय-वक्तव्यता का है। पहले उद्देशक में भूतवादी आदि का मत बताया गया है, और दूसरे उद्देशक में अदृष्ट नियतिवादी आदि मिथ्यादृष्टिसम्पन्न दार्शनिकों का मत बताया गया है । प्रथम उद्देशक में 'बुज्झिज्जत्ति' आदि बोध-सूत्रों के द्वारा कहा गया है कि जीव को पहले बोध प्राप्त करना चाहिये । आत्मस्वरूप का बोध होते ही बन्धन का स्वरूप जानकर उसे तोड़ना चाहिये।
___ अतः आत्म-स्वरूप के बोध के साथ-साथ 'बन्धन' के सम्बन्ध में किस दार्शनिक ने क्या कहा है ? किसने बन्धन को माना है, किसने नहीं ? इन सब बातों का बोध करना आवश्यक है । इसलिए शास्त्रकार अब नियतिवादी आदि ने क्या कुछ कहा है, वह क्रमशः बताते हैं--
मूल पाठ आघायं पुण एगेसि, उववण्णा पुढो जिया। वेदयंति सुहं दुक्खं, अदुवा लुप्पंति ठाणउ ॥१॥
संस्कृत छाया आख्यातं पुनरेकेषामुपपन्नाः पृथग्जीवाः । वेदयन्ति सुखं दुःखमथवा लुप्यन्ते स्थानतः ॥१॥
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