________________
सूत्रकृतांग सूत्र
उच्चावयाणि 'णंतसो- - इस पंक्ति में बताया गया है कि पूर्वोक्त मतवादियों को कोई एक ही जन्म ले कर नहीं रहना होगा, बल्कि अनेक उच्च-नीच ( स्थानों ) गतियों एवं योनियों में बार-बार परिभ्रमण करते हुए वे एक-दो बार नहीं, अनन्त बार माता के गर्भ को प्राप्त करेंगे ।
१३८
जो व्यक्ति राग-द्वेष-रहित है, विश्वहितैषी है, सर्वज्ञ है, सर्वदर्शी है, नि:स्पृह है, त्यागी है, उसकी वाणी से किसी के प्रति किसी प्रकार से द्वेष- रोष या घृणार से सम्पृक्त कोई भी वचन नहीं निकलता । वे क्यों किसी के प्रति द्वेषवश या वैरवश वचन निकालेंगे ? उन्होंने अपने ज्ञान में जैसा भी उन पूर्वोक्त वादियों का अन्धकारमय भविष्य देखा, वैसा ही उन्होंने प्रकट कर दिया । उन्होंने किसी का व्यक्तिगत नाम लेकर ये बातें नहीं कहीं, बल्कि अमुक-अमुक गलत सिद्धान्त प्ररूपणा करने वालों के लिये समुच्चय रूप में कही हैं । इसीलिए शास्त्रकार तीर्थंकर की ओर से इस उद्देशक का उपसंहार करते हुए कहते हैं
त्ति बेमि ।
इस प्रकार मैं कहता हूँ ।
पढमज्झयणे पढमो उद्देशो सम्मत्तो ||
इस प्रकार सूत्रकृतांग सूत्र के प्रथम अध्ययन का प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण हुआ । सूत्रकृतांग के प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देशक की 'अमरसुखबोधिनी' व्याख्या भी सम्पूर्ण हुई ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org